गीत/नवगीत

मधुगीति- उरों के आसमान छूने में

उरों के आसमान छूने में,
सुरों की सरिता में नहाने में;
वक़्त कितना है प्राय लग जाता,
कहाँ अहसास परम पद पाता !

पता उस इल्म का कहाँ होता,
फ़िल्म की भाँति विश्व कब लखता;
हक़ीक़त लगता जो अनित्य रहा,
अच्युत से चित कहाँ है मिल पाता !

चेतना फुरती चमन के पुष्पन,
भाव भौंरे को कभी आ जाता;
स्वाद जब परागों का पा जाता,
नित्य प्रति वहीं रहे मँड़राता !

मनों को तनों से हटाने में,
आत्म को अहं से फुराने में;
शतायु जाती बीत बस यों ही,
जन्म कितने कभी हैं लग जाते !

गुरु आते हैं और चल देते,
समझ हर किसी को कहाँ आते;
प्रयोजन व्यस्त रहे वे लगते,
‘मधु’ के प्रभु के इशारे रहते !

— गोपाल बघेल ‘मधु’