गज़ल
आगाज़ तो हो जाए अंजाम तक ना पहुंचे
जब तक मेरी कहानी तेरे नाम तक ना पहुंचे
तेरे आने से उजाला फैला है हरसू लेकिन
ये सुबह धीरे-धीरे कहीं शाम तक ना पहुंचे
कभी उनसे सिलसिले थे दिन-रात गुफ्तगू के
अब महीनों गुज़र जाएं इक पैगाम तक ना पहुंचे
मयकशी के दरिया में जो डूबा फिर ना उबरा
तेरी दीवानगी भी कहीं जाम तक ना पहुंचे
इतनी भी तरक्की किसी काम की नहीं है
जहां यार-दोस्तों का सलाम तक ना पहुंचे
— भरत मल्होत्रा