गज़ल
खो गई कहीं धरोहर सारी संस्कृति का नाश हुआ
भूल के जिम्मेदारी आदमी इच्छाओं का दास हुआ
पौ फटने से पहले उठना सोच पुरानी लगती है
सूर्यवंशियों के बच्चों को रात सुहानी लगती है
कौन करे अब सैर बाग में कसरत-वसरत कौन करे
सुबह नहाकर मंदिर तक जाने की ज़हमत कौन करे
कैसे हो माँ-बाप की सेवा शाम को पिक्चर जाना है
और रात को होटल में पीज़ा-बर्गर भी खाना है
चंदन, रोली तिलक लगाने में भी लज्जा आती है
रक्षाकवच से सजी कलाई अब ना किसीको भाती है
कथा श्रवण को समय नहीं अब यज्ञ ना कोई करता है
धर्म की बातें करने वाला आदिमानव लगता है
दया, समर्पण, क्षमा सभी गुण त्याग दिए हैं नारी ने
सबको फूहड़ बना दिया है फैशन की बीमारी ने
चरित्र हो गया शिथिल पुरूष का स्वार्थ प्रेम पर भारी है
पराई संपत्ति और पराई नारी इसको प्यारी है
कितना और पतन होगा इस पीढ़ी का ये पता नहीं
लेकिन अपनी जड़ों से कटकर कोई आज तक बचा नहीं
माना वक्त के कदम से कदम मिलाकर चलना पड़ता है
साथ समय के सबको थोड़ा-बहुत बदलना पड़ता है
लेकिन अपने नैतिक मूल्यों से यूँ मुँह ना मोड़ो तुम
पश्चिमी मोह में अँधे होकर अपनी सभ्यता ना छोड़ो तुम
अब भी वक्त है संभल जाओ वरना पीछे पछताओगे
वक्त निकल जाएगा और तुम हाथ मलते रह जाओगे
— भरत मल्होत्रा