कहीं भूख से बेदम बचपन
कहीं भूख से बेदम बचपन
कहीं जश्न में छलके प्याले।
पत्थर होते इंसानों को
इंसा करदे ऊपर वाले।।
चकाचौंध वालों को दिखता
काश ज़माने में फैला तम।
काश हमें अपने से लगते
औरों के दुख औरों के ग़म।।
नही छीनते लोग जहां में
हाथ दीन के लगे निबाले…
पत्थर होते इंसानों को
इंसा करदे ऊपर वाले…
भौतिकता की बढ़ी चाह में
पागल लगता है हर कोई।
सब कुछ मुट्ठी में करने को
आतुर लगता है हर कोई।।
धवल वस्त्र में छुपा रहे हैं
लोग जगत कें धंधे काले…
बातें ऊँची नैतिकता की
लेकिन सोच गिरावट वाली।
बाहर जितनी चकाचौंध है
अंदर दुनिया उतनी काली।।
भाव-भावनाओं से मतलब
कब रखते हैं दौलत वाले…
चाँद सितारों की बातों में
गायब हैं रोटी की बातें।
काश याद होती सत्ता को
दीन दुखी की काली रातें।।
सब को रोजी रोटी मिलती
होते नही अगर घोटाले…
सतीश बंसल
१९.०२.२०१८