दिया
गुप्ता जी पार्क में आए तो अभी भी वह नहीं आई थीं। पहले दो दिन भी वह प्रतीक्षा कर लौट गए थे। वह बैठ कर इंतज़ार करने लगे।
पत्नी की मृत्यु को एक वर्ष होने वाला था। पहले हर शाम वह अपनी पत्नी के साथ घर में लगाए हुए छोटे से बागीचे में बैठ कर चाय पीते थे। पर पत्नी के ना रहने पर शाम का वह समय जैसे काटने को दौड़ता था। अतः उन्होंने घर के पास बने इस पार्क में आना शुरू किया। यहीं उनकी मुलाकात सविता जी से हुई।
दोनों ने ही एक दूसरे के एकाकीपन को पहचान लिया। हमदर्दी उन्हें एक दूसरे के समीप ले आई। रोज़ शाम वह इसी पार्क में एक दूसरे के साथ कुछ समय बताते थे। कभी कुछ बातचीत करते तो कभी बिना कुछ बोले एक दूसरे के साथ को महसूस करते।
गुप्ता जी ने घड़ी देखी। प्रतीक्षा करते हुए आधा घंटा निकल गया था। उन्हें चिंता होने लगी। कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई। बेचैनी में वह इधर उधर टहलने लगे। तभी सविता जी आती दिखाई दीं।
“कहाँ रह गई थीं आप। दो दिनों से आई भी नहीं।”
गुप्ता जी ने परेशान होकर पूँछा।
बेंच पर बैठते हुए सविता जी बोलीं।
“दरअसल पोते को बुखार था। इसलिए नहीं आ पाई। आज कुछ ठीक था तो आ गई।”
गुप्ता जी को तसल्ली हुई। सविता जी ने पूँछा।
“आप कैसे हैं?”
“अब ठीक हूँ।” गुप्ता जी के मुंह से निकला। अपनी बात को सुधारते हुए बोले।
“मेरा मतलब ठीक हूँ।”
गुप्ता जी के मन का बुझा हुआ दिया फिर जल उठा था।