ग़ज़ल
दीप रिश्तों का बुझाया जो, जला भी न सकूँ
प्रेम की आग की ये ज्योत बुझा भी न सकूँ
हो गया जग को पता, तेरे मेरे नेह खबर
राज़ को और ये पर्दे में छिपा भी न सकूँ
गीत गाना तो मैं अब छोड़ दिया है ऐ सनम
गुनगुनाकर भी ये आवाज़, सुना भी न सकूँ
वक्त ने ही की है चोट और हुआ जख्मी ए दिल
जख्म ऐसे किसी को भी मैं दिखा भी न सकूँ
बेरहम है मेरे तक़दीर, प्रिया को लिया छीन
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
बाल सूरज हो गया अस्त है सूनी माँ की गोद
आँख सूखी, न गिली किन्तु रुला भी न सकूँ
ख़ूनी चालाक था गायब किया सब औजारें
साक्ष्य कोई नहीं, पापी को फँसा भी न सकूँ
मिला है प्यार मुझे मांगे बिना यार मेरे
वो है ‘काली’ मेरा पाथेय, लुटा भी न सकूँ
— कालीपद प्रसाद