लघुकथा – समय का पहिया
“बहू मंजरी, मैं जरा देवरानी के घर जा रही हूँ, वो कुछ बीमार सी हैं| अगर लेट हो जाऊं, सब्जी बनाई पड़ी है अपने ससुर जी के लिये फुलके बना देना| उनको समय पर खाना खाने की आदत है|” बहू तो अपनी माँ की सलाह के अनुसार खुद को ढाल रही थी | बहू ने बात अनसुनी सी कर दी, न कोई जवाब दिया, दरवाज़ा जोंर से मार अपने कमरे में चली गई| सुधा चली तो गई पर बहू के व्यबहार मन उदास व बिक्षुब्ध रहा| सुधा घर की बात कभी बाहर नहीं करती थी| त्याग और दया की भावना माँ से मिली थी| सुधा संस्कारी और कामक़ाज़ी नारी थी, सबसे तालमेल रखती थी| वो हमेशा बहू और बेटी पूरे परिवार से सामान्य व्यवहार करती और सब रिश्तेदारी के आये-गये का खूब सम्मान करती| बहू मंजरी की माता सिखाती, “मंजरी तुम इकलौती बहू हो, सास पर दवाव बना कर रखना| वो काबू में हो गई तो सारा घर खुद ही तेरे साथ होगा|” बहू मंजरी के बेटी पैदा हुई, सास ने खूब सेवा की, बाद में पैसे खान-पान की जब जरूरत होती हमेशा साथ देती|” मंजरी का माँ बनने के बाद रुख बदल गया था| जब सास ने आँखों का आपरेशन करवाया, बहू ने जी जान से सेवा की| घर में खूब सम्मान मिला | मंजरी की माँ ने डांटा, “सास की क्यों सेवा करती है, सर चढ़ जायेगी|” मंजरी को घर का माहौल और सास की सात्विकता पर विश्वाश हो चुका था| मंजरी बोली, “माँ, हमारे घर के मामले में दखल न दो, अब मैं सब जान चुकी हूँ| सास समय–पहिया सी बंधी घर की एकसूत्रता की लड़ी है, हम इसकी परवाह न करें ये मुमकिन नहीं|”
— रेखा मोहन