लघुकथा- कुंठा
रात के एक बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का सफल का सञ्चालन कराकर वापस लौटकर घर आए पति ने दरवाज़ा खटखटाना चाहा. तभी पत्नी की चेतावनी याद आ गई. ‘आप भरी ठण्ड में कार्यक्रम का सञ्चालन करने जा रहे है. मगर १० बजे तक घर आ जाना. अन्यथा दरवाज़ा नहीं खोलुंगी तब ठण्ड में बाहर ठुठुरते रहना.’
‘ भाग्यवान नाराज़ क्यों होती हो.’ पति ने कुछ कहना चाहा.
‘ २६ जनवरी के दिन भी सुबह के गए शाम ४ बजे आए थे. हर जगह आपका ही ठेका है. और दूसरा कोई सञ्चालन नहीं कर सकता है ?’
‘ तुम्हें तो खुश होना चाहिए,’ पति की बात पूरी नहीं हुई थी कि पत्नी बोली, ‘सभी कामचोरों का ठेका आपने ही ले रखा है.’
पति भी तुनक पडा, “ तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारा पति …”
‘ खाक खुश होना चाहिए. आपको पता नहीं है. मुझे बचपन में अवसर नहीं मिला, अन्यथा मैं आज सबसे प्रसिद्ध गायिका होती.”
यह पंक्ति याद आते ही पति ने अपने हाथ वापस खींच लिए. दरवाज़ा खटखटाऊं या नहीं. कहीं प्रसिध्द गायिका फिर गाना सुनाने न लग जाए.
— ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”