कविता

दो मृगछौने

देख के दो सुंदर मृगछौने,
मन ने पूछा ये हैं कौन?
मन उत्तर-प्रतिउत्तर करता,
मृगछौने तो रहते मौन.

एक है अलख, अलेप, अनादि (अतींद्रिय),
नाम है उसका ब्रह्म महान,
एक लिप्त होता है जग में,
जीव है उसका नाम निदान.

नहीं नहीं, यह ठीक नहीं है,
ये तो हैं दिन-रात समान,
एक दिवस की किरणें लाता, 
एक दिवस का है अवसान.

अथवा ये सुख-दुःख साक्षात हैं,
साथ-साथ हरदम रहते हैं,
दुःख के पीछे सुख आता है,
सुख में सम्मिलित दुःख रहते हैं.

शायद ये जीवन-मृत्यु हों,
कभी नहीं ये मिल पाएंगे,
तभी भिन्न दिशा में मुख है,
ऐसे ही ये रह जाएंगे.

ये हैं सिक्के के दो पहलू,
या कि नदी के हैं दो छोर,
अथवा दो ध्रुव भूमंडल के,
इनका कोई ओर न छोर.

कोई भी हों ये इससे क्या है,
सीख हमें लेनी है इनसे,
भिन्न दिशा में मुख हों तब ही,
वार्ता कर सकते हैं सुख से.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “दो मृगछौने

  • लीला तिवानी

    मेरी छात्रा जयश्री पिप्पिल ने 1984 में दो मृगछौने चित्र बनाकर मुझे उपहार में दिया था, जिसे मैंने अपने कविता-संग्रह के कवर पर लगा रखा है. यह कविता उसी चित्र पर आधारित है .

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