जज्बात
कुछ अपने
अपने होकर भी
गैर हो जाते हैं
रिश्तों के सुर्ख जज्बात
फीके रंग बिखरते हैं
एक खूबसूरत अपनत्व
जो कभी महका करता था
जज्बातों के खुशबू से
आज, बदलते रिश्तों की मानसिकता
उसमें डूबा स्वार्थ की मंशा
दर्द का नासूर बनकर चुभता है
भुलाने लगे हैं लोग
अपनों को अपनों से
नहीं समझ पाते जिंदगी का फलसफा
भौतिकता का प्रकोप,
या यूं कहें आकर्षण
ले रहा लगभग सभी को अपने आगोश में
मानो, हम अपना विवेक, बुद्धि,
चेतना सब खोते चले जा रहे हों
और एक कृत्रिम स्वभाव का प्रदर्शन कर
दिखावे के रिश्ते निभाने लगे हैं
हम स्वयं को ही मिटाने में और
आत्मा को भुलाने में जुटे हैं
इंसान बढ़ रहा आगे पर….
पर, इंसानियत छूट रही पीछे।
इंसान बढ़ रहा आगे पर….
पर, इंसानियत छूट रही पीछे।