नव सुप्रभात
दिन की आपाधापी पूर्ण कोलाहल में भले ही अंतर्मन की भावनाएं सुषुप्तावस्था में रहें, लेकिन रात्रि के सन्नाटे के आगोश में वे पुनः जागृत हो उठती हैं. रुक्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ था.
आज उसने रेडियो पर सुबह-सुबह समाचारों के बाद एक कविता ‘सुप्रभात’ की दो पंक्तियां सुनी थीं.
”नयन का नयन से, नमन हो रहा है
लो उषा का आगमन हो रहा है.”
आगे रुक्मा सुन नहीं पाई थी, क्योंकि अब तो उसके जीवन में न उषा का आगमन होना था और न ही नव सुप्रभात का. रुक्मा की सुप्रभात तो उसी दिन ढल गई थी, जब उसके पति मोहन की तेरहवीं के तुरंत बाद उसके ससुराल वाले उसे वृंदावन के वृद्धाश्रम में छोड़ गए थे. अपने मोहन की रुक्मिणी अब रुक्मा कहलाती थी. बिना बालों का मुंडा हुआ सिर और सफेद धोती उसकी पहचान हो गई थी. कितनी खुशी से वह अपने पति के साथ फाग के महीने में फाग गाती थी!
”फागण आयो फागणियो रंगा दियो रसिया, हो रंगा दियो रसिया, फागण आयो”.
सचमुच उसके रसिया फागण में उसे रंगरंगीलो फागणियो लाकर देते थे. अब तो वे दिन फ़ाख़्ता हो गए हैं. अब तो न उसकी होली में रस का रंग बरसता है, न दिवाली में मन का दिया जलता है. सचमुच ही उसके ”सबै दिन एक समान” हो गए थे. सोचते-सोचते न जाने कब उसे नींद आ गई. सुबह वही नियमित भागमभाग और आपाधापी.
नाश्ते के पहले दी गई एक अधिसूचना ने सबके मन-मयूर को हर्षित कर दिया था. ”आज सबको आश्रम की बस से शहर ले जाया जाएगा, ताकि सब अपनी मनमर्जी से फाग-उत्सव के लिए नए कपड़े, मिठाई, रंग-गुलाल आदि खरीद सकें. इस बार होली पर आश्रम में सभी विधवाएं भी धूम-धड़ाके से होली खेलेंगी”.
रुक्मा को लगा, नव सुप्रभात की सुखद बेला में उषा का आगमन हो रहा है.
खुशियों और रंगों की नव सुप्रभात ने रुक्मा जैसी दुखियारियों के जीवन में नया रंग भर दिया था. यही तो सची होली है.
हो सके तो मुस्कुराहट बांटिये,
रिश्तों में कुछ सरसराहट बांटिये……
नीरस सी हो चली है ज़िन्दगी बहुत,
थोड़ी सी इसमें शरारत बांटिये……
सब यूँ ही भाग रहे हैं परछाइयों के पीछे,
अब सुकून की कोई इबादत बांटिये……
ज़िन्दगी यूँ ही न बीत जाये गिले शिकवों मे
बेचैनियों को कुछ तो राहत बांटिये…..!!
आप सभी को होली के पावन पर्व की अनन्त शुभकामनाएं। रंगों का यह पवित्र त्योहार आप सबके जीवन को असीम प्रेम, सौहार्द, करुणा, दया, और ममता के रंगों से आप्लावित कर दे ऐसी कामना करता हूं। पुन: आपको और आपके परिवार को स्नेहिल शुभकामनाएं.