“रेवती का मायका”
मधुमास बीतने लगा तो रेवती गर्मी की तपन को महसूस कर चिंतित रहने लगी। यह गौरैया भले ही किसी के घर में अपना घोंसला बनाकर रहती थी पर उछलती तो आस पास के हरे हरे पेड़ों की डालियों पर ही थी। जमीन की बाँट और वृक्षों के कटाव को वह समझ तो नहीं पाती थी पर आए दिन टहनियों का अभाव उसे खलने लगा और वह एक दिन उड़ते उड़ते बहुत दूर उस जंगल में पहुँच गई जहाँ अभी भी झाड़ियों झुरमुटों की उलझी हुई लताएं अपने फल फूल के साथ अठखेलियाँ कर रहीं थी। जहाँ उसका मन लग और अपना मायका समझकर वह पूरे दिन मनगमती छाँव में मचलती रही। शाम हुई तो बच्चों की याद आयी और अपने ससुराल लौट आयी। पर मन ही मन यह मन बना लिया कि वह अगली बैसाखी गर्मी में अपने बच्चों को लेकर अपने उस मायके में चली जायेगी जहाँ माँ बाप तो नहीं हैं पर खेलने खाने वाले प्राकृतिक भाई बहन भरे पड़े हैं।
ठंड आई गई हो गई और गर्मी भी आकर चली गई पर रेवती के घोसले में न चूँ चूँ हुई न कलरव हुआ शायद वह सदा के लिए छोड़ गई अपनी ससुराल और बस गई मायके में, कहीं दिख जाए वह प्यारी गौरैया तो बताइयेगा जरूर, बच्चों को उसका सुरीला गाना सुनाना है और बताना है कि इसी घोसले में रहा करती थी रेवती जो पेड़ो के अभाव में अब लुप्तप्राय हो गई है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी