ग़ज़ल
तंज़ सुनना तो विवशता है, सुनाये न बने
दर्द दिल का न दिखे और दिखाए न बने
पाक से हम करें क्या बात बिना कुछ मतलब
क्यों करे श्रम जहाँ कि बात बनाए न बने
क्या कहूँ उनके हुनर की, है अनोखा अनजान
यही तारीफ़ कि हमको न सताए न बने
कर्म इंसान का हो ठीक सितारा जैसा
कर्म काला किया तो चेहरा दिखाए न बने
हाथ की रेखा बताती है कि आगे क्या है
मर्द तक़दीर जो बिगड़े तो बनाए न बने
प्रेम करने गया था पर बना बेचारा बैर
नफरतों की जो लगी आग बुझाए न बने
न हुई गंगा सफाई कई सालों के बाद
भक्त जाते हैं नहाने तो नहाए न बने
— कालीपद ‘प्रसाद’