पहचान
19 सितंबर का दिन प्रोमिला कभी नहीं भूल पाती. वह चाहती है, कि 19 सितंबर कभी आए ही न! लेकिन पिछले दस सालों से हर साल की भांति 19 सितंबर आ ही जाता है. यही तो वह दिन था, जब प्रोमिला की हंसती-खेलती जिंदगी में ग्रहण लग गया था. सारा दिन भाग-दौड़ करती प्रोमिला हर बात के लिए मोहताज हो गई थी. अचानक उसका बोलना-खाना-पीना-चलना-फिरना बंद हो गया था. मुंहं टेढ़ा हो गया था, बांयां हाथ लटक गया था, पूरा बांयां हिस्सा लकवे से प्रभावित हो गया था. तुरंत ऐम्बुलैंस आ गई थी, ऐम्बुलैंस में ही उसका इलाज शुरु हो गया था, उसकी किस्मत अच्छी थी, कि आठ दिनों में ही वह ठीक हो गई और अस्पताल से घर आ गई, लेकिन यह अपंगता इतनी जल्दी उसका पीछा कहां छोड़ने वाली थी! लकवे ने उसे खुद से भी पहचान करा दी थी, औरों से भी.
अब न वह अपना कोई काम खुद कर पाती थी, न घर का. चाय-दूध भी उसे चम्मच से पिलाया जाता था, वह भी टेढ़े मुंहं से इधर-उधर बिखर जाता. सारा दिन वह अपने में खोई रहती और खुद को पहचानने लग गई, जो गुरुओं के कहने पर अब तक न कर पाई थी. पति का सच्चे सहयोगी का रूप भी सामने आ गया था. जिन बच्चियों को वह निपट नादान समझती थी, उन्होंने घर को कैसे संभाल लिया, यह वह अब तक नहीं समझ पाई थी. वह न जाने कब तक ऐसे ही सोचती रहती, अगर छोटी बिटिया ‘ममीSSSS–‘ पुकारती हुई कमरे में न आ जाती.
मनोवैज्ञानिकों ने अपनी पहचान के तीन सूत्रों का उल्लेख इस प्रकार किया है-
(1) अपने आपको जानो
(2) अपने आपको स्वीकार करो
(3) अपने आप में रहो
प्रोमिला ने ऐसा ही किया.