लघुकथा- बिखरते सपने
बड़ा शौक था संध्या को नई नई किताबें लेकर स्कूल जाने का। पढ़ लिखकर खूब नाम कमाने का। बचपन से ही उसमें निष्ठा और लगन भरी हुई थी। माँ बाबू ने हर इच्छा पूरी की उसकी, अच्छे स्कूल में दाखिला, सभी ज़रूरतें पूरी करना, इत्यादि। संध्या को भरपूर प्यार मिला अपने माता पिता से। हालाँकि उसके दो छोटे भाई और भी थे, परन्तु कभी लड़का लड़की में उसके माँ बाप ने फर्क न रखा। परन्तु कईं बार तकदीर अजब खेल खेलती है। एक दिन अचानक संध्या के माँ बाबू की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी।
संध्या और उसके दोनों भाई अनाथ हो गये। उसी दिन से उनकी जिन्दगी के दिन बदल गये। संध्या के चाचा उनको अपने साथ ले गये। पर चाची का बर्ताव कुछ अच्छा नहीं था उन बच्चों के प्रति। उनका स्कूल बंद करवा दिया। संध्या केवल घर के चूल्हे चौके में ही लगी रही, बार बार उसको खाली बैठे रहने के ताने देती उसकी चाची। और उसको काम करने को बोलती। संध्या की एक सहेली ने उसको सर्कस में काम दिलवा दिया। एक कठपुतली बनकर रह गयी वो, बाहर भी और घर में भी। उन पैसों में से वो अपने भाइयों में लिए भी बचा न सकती थी, सभी उसकी चाची छीन लेती थी। आस पास बच्चों को स्कूल जाता देख, अच्छे कपड़े देख, माता पिता का हाथ पकड़े देख उसके मन में पीड़ा उठती थी बहुत, “काश आप हमारे पास होते माँ बाबूजी”। कौन पूरे करेगा अब मेरे सपने। आपके जाने से सब बिखरकर रह गये। सोचे सोचे संध्या की आँखों से आंसूं टपक पड़ते हैं।
— डॉ सोनिया