गीत – अब मत बांटो रे
टुकड़ों-टुकड़ों में धरती को अब मत बांटो रे।
बांट लिया घर, खेत, बाग, मत अम्बर बांटो रे।।
गगन चूमते लम्बे तरु बादल पास बुलाते।
गरज-गरज खूब बरसते भू की प्यास बुझाते।
वृक्ष हमारे जीवन दाता, इन्हें न काटो रे।।
ऊंचे उठे पहाड़ देश का स्वाभिमान गाते।
जड़ी-बूटियां, फूल, फूल नग-तन महकाते।
संस्कृति के संवाहक, रक्षक, भूधर मत काटो रे।।
लोगों के मन परिवर्तित बदले हैं आचार सभी।
धन के परितः घूम रहें मानवीय व्यवहार सभी।
उगी विष-बेल हृदय में आज, उसको छांटो रे।।
निहित स्वार्थ की दीमक हर उर में आज पली है।
और अर्थ की चकाचैंध में फंसी सुमन-कली है।
समरसता ममता से मन की खांई पाटो रे।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’