आरजू
जीने की आरजू में रोज मरते हैं
हम वो परवाने हैं जो इश्क़ की
आग में खुद को फना करते हैं
तड़फते हैं दिन भर इश्क़ के चूल्हे में
रात को इश्क़ के धुंए में दामन
को अपने चाक करते हैं
चोली दामन का साथ है इश्क़ और आंसू का
इश्क़ के पतीले में इबादत को उबाला करते हैं
मंजिलें कब नसीब होती हैं इश्क़ के ख्यालों को
लकड़ी की तरह खुद को जलाया करते हैं
नफरत है अगर इश्क़ तो जरा गौर भी फरमाइए
क्यों पूजते हो पत्थर के बेनाम बुतों को तुम
नजर तो उठाइये हुजूर उन सिसकते हुए
प्यादों की तरफ
बन के हीर तमाम उम्र तसब्बुर में जिया करते हैं
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़