डर….
रात की तन्हाईयाँ और मैं अकेली
परछाईयों से लड़ती-जूझती हुई
हर तरफ पसरा घनघोर अंधेरा
डसने लगा रात काले नाग सा
सुबकते कोने में डरी सहमी सी
वक्त कटने का करने लगी मिन्नतें
हर लम्हा सन्नाटे की सनसनी आवाजें
मेरी धड़कनों को तेज बढाने लगी
घेरता गया डर का साया चारों ओर से
चीख भी दब गई कंठ के किसी कोने में
आँखें मूंदे कांपते थरथराते होंठ मेरे
करने लगे इंतजार हिम्मत की मुठ्ठी बांधे
आखिर, कभी तो होगी सुबह इस काली रात का।