ईश्वर हम सबका सच्चा मित्र व संसार का स्वामी है
हम इस संसार में रह रहे हैं जो हमें अपने जन्म से पूर्व से बना बनाया प्राप्त हुआ है। हमें कुछ करना नहीं पड़ा। पुरातन काल से चल रही व्यवस्था के अनुसार हमें माता-पिता का संरक्षण प्राप्त हुआ। उन्होंने एक शिशु के रूप में हमें प्राप्त कर हमारा पालन करते हुए बड़ा किया, पढ़ाया व लिखाया तथा हमारे विवाह आदि कार्य भी किये। इसी प्रकार से हमारे माता-पिता के साथ भी हुआ था। संसार में आदि काल से अब तक सभी मनुष्यों को सृष्टि बनी बनाई मिली है। इस संसार में हमें जीवित रहने के लिए वायु, जल, अग्नि, आकाश, भूमि, अन्न, ओषधि व वनस्पतियों आदि की आवश्यकता है। यह सब पदार्थ सभी मनुष्यों के जन्म लेने से पूर्व ही सृष्टिकर्ता ईश्वर ने बनाकर तैयार किए और सभी मनुष्यों को बिना किसी शुल्क आदि के सबको एक समान रूप से प्रदान किए हैं। ईश्वर की व्यवस्था में किसी के प्रति पक्षपात, अन्याय, शोषण, भेदभाव आदि नहीं है। हम जैसा बोते हैं वैसा ही काटते हैं। हमारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही हमें मनुष्यादि अनेक जन्म प्राप्त होते हैं जिनमें रहकर हमें अपने पूर्व जन्म व उससे भी पूर्व जन्मों के अभुक्त कर्मों को भोगना होता है। कई बार कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि ईश्वर ने यह संसार अपने किस प्रयोजन को पूरा करने के लिए रचा है। इसका उत्तर है कि ईश्वर का अपना कोई प्रयोजन इस सृष्टि की रचना व पालन में नहीं है अपितु उसका उद्देश्य जीवात्माओं को सुख पहुंचाना है। इसी उद्देश्य के लिए उसने इस संसार को रचा है। हम जानते हैं कि जिस मनुष्य में जो योग्यता होती है, वह उस कार्य को आवश्यकता होने पर अवश्य ही करता है। डाक्टर रोगियों का इलाज करता है, इंजीनियर अपने ज्ञान, विद्या व शारीरिक शक्ति के अनुसार अपनी विद्या का लाभ समाज के लोगों को पहुंचाता हैं, श्रमिक श्रम द्वारा, विद्वान शिक्षा व उपदेश द्वारा समाज का हित करते ही हैं। ईश्वर तो मनुष्यों से भी अधिक धार्मिक व विद्वान होने सहित सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, आनन्दस्वरूप आदि गुण व शक्तियों से सम्पन्न है। अतः वह खाली या आलसी नहीं रह सकता। उसको सर्वज्ञ होने के कारण सृष्टि बनाने व चलाने का ज्ञान है। अतः अपने स्वभाव, ज्ञान व शक्ति के अनुसार वह इस सृष्टि को बनाता व चलाता है। यदि वह ऐसा न करता तो उस पर यह आरोप लगता कि ईश्वर इन कार्यों को करने के योग्य नहीं है। वह आलसी है और कर्मशील नहीं है।
मनुष्य के ईश्वर के साथ अनेक सम्बन्ध है। वह हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश भी है। वेदों में उसके अधिकांश गुणों का उल्लेख व वर्णन है। वेद परमात्मा को सभी मनुष्यों व प्राणियों का सच्चा मित्र व स्वामी बताते हैं। मित्र वह होता है जो सुख व दुःख में साथ देता है। दुःख होने पर दुःख दूर करने के लिए प्रयत्नशील होता है। यहां तक कि वह अपने मित्र के दुःखों को स्वयं ही सहन करना चाहता है और अपने मित्र को इससे अवगत तक कराना नहीं चाहता। मित्र वह होता है जो अपने मित्र की हर प्रकार से सहायता व रक्षा करता है। यदि मित्र अभावग्रस्त होता है तो वह उसकी आर्थिक व अन्नादि से सहायता भी करता है। मित्र अपने मित्र की खुशी में प्रसन्न होता है और दुःख में दुःखी होता है। सभी माता-पिता भी अपनी अपनी सन्तानों के मित्र ही होते हैं। वह भी अपनी सन्तान की रक्षा व पालन करते हैं व उसका हमेशा शुभ व कल्याण चाहते हैं। सन्तान को यदि कोई कष्ट होता है तो माता-पिता यह जानकर ही विचलित व दुःखी हो जाते हैं परन्तु अपनी सन्तान को अपना दुःख जताते नहीं हैं। समाज में ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं कि निर्धन मातायें अपनी सन्तानों का पालन करने के लिए दूसरों के घरों में झाडू-पोचा या सफाई, बर्तन मांजना, पानी भरना, कपड़े धोना व कपड़े सिलना आदि अनेक कार्य कर अपनी सन्तानां को पढ़ाती लिखाती व उन्हें योग्य बनाती हैं।
हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का बचपन भी कष्टों व अभावों में व्यतीत हुआ। उनकी माताजी ने भी एक निर्धन महिला के सभी काम करके अपने पुत्र का पालन पोषण किया। आश्चर्य है कि उनका पुत्र भारत का प्रधानमंत्री है और उनकी माताजी व परिवार के शेष सदस्य सामान्य नागरिकों की तरह साधारण लोगों का सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। राजनीति से जुड़े अन्य किसी व्यक्ति में ऐसा जीवन जीने का उदाहरण देखने को नहीं मिलता। मोदी जी को अपने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय तक बेचनी पड़ी। ऐसे उदाहरणों से माता-पिता व आचार्यों की सन्तान निर्माण में भूमिका का ज्ञान होता है। वस्तुतः माता-पिता और सच्चे आचार्य अपनी अपनी सन्तानों व शिष्यों के मित्र ही होते हैं। ऐसा ही हमारा परमात्मा हम सब मनुष्यों व प्राणियों का सच्चा मित्र है। हम जीवात्माओं के कर्मों का वह परमात्मा हिसाब किताब रखता है। उसके अनुसार हमें सुख देकर न्याय करता है। अच्छे काम करने वालों को प्रोत्साहन व प्रेरणा देकर उनकी आत्मा में आनन्द व उत्साह उत्पन्न करता है। मनुष्य व प्राणियों के सुख के लिए जो भी अत्युत्तम पदार्थ हो सकते हैं वह उसने सृष्टि में बनाकर उपलब्ध करा रखे हैं। मानवीय व्यवस्था में ही खराबी है कि परमात्मा द्वारा सब प्राणियों के लिए बनायें गये पदार्थ सबको सुलभ नहीं हो पाते। सभी मनुष्यों के अधिकार की वस्तुयें व पदार्थ दूसरे कुछ चालाक व पठित व्यक्ति अपनी इच्छानुसार व्यवस्थायें बनाकर उनका भोग करते हैं जबकि दूसरे प्राणी अभाव व दुःखों से भरा जीवन व्यतीत करने पर विवश होते हैं।
यजुर्वेंद के 36/9 मंत्र में ईश्वर को ‘शन्नो मित्रः’ कहकर उसे जीवात्माओं व मनुष्यादि प्राणियों का कल्याण करने अर्थात् सुख प्रदान करने वाला बताया गया है। स्वामी दयानन्द जी ने इन शब्दों के भाष्य में लिखा है कि ‘हे मंगलप्रदेश्वर! आप सर्वथा सबके निश्चित ‘मित्र’ हो। हमको सत्यसुखदायक सर्वदा हो।’ वेद के इस प्रमाण से भी ईश्वर हम सबका सच्चा मित्र सिद्ध होता है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा कल्याण हो और हमें सुख प्राप्त हो तो हमें भी ईश्वर का सच्चा मित्र व आज्ञाकारी व शुभकर्म करने वाला मनुष्य बनना होगा। यदि कोई व्यक्ति अच्छे काम नहीं करता तो वह माता-पिता व आचार्य से दण्ड का भागी होता है। इसी प्रकार से यदि हम अशुभ कर्म करेंगे तो ईश्वर के दण्ड के भागी होंगे। दण्ड देना इस कारण से होता है कि हमारे विचारों व व्यवहार में सुधार हो। किसी बिगड़े हुए व्यक्ति को सुधारने के दो ही प्रकार होते हैं कि उसे प्रेम पूर्वक समझाया जाये और दूसरा यदि वह न समझे और न माने तो उसे दण्डित किया जाये। ईश्वर भी ऐसा ही करता है। अतः हमें अपने व्यापक हित में ईश्वर की वेदाज्ञाओं का पालन करने के साथ उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना व अपने वेद विहित कर्तव्यों का पालन करते हुए अपना जीवन निर्वाह करना चाहिये। ऐसा करके हम ईश्वर के निश्चय ही मित्र बनेंगे। हमारा कल्याण होगा और हमें ईश्वर से सुख प्राप्त होगा।
ईश्वर ही इस संसार का स्वामी है। यजुर्वेद 13/4 में ‘भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’ कहकर ईश्वर को उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का एक ही प्रसिद्ध स्वामी चेतनस्वरूप बताया गया है। इस संसार का अन्य कोई स्वामी है भी नहीं। इस संसार को बनाने व पालन करने वाला तथा जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख प्रदान करने के कारण ही वह ईश्वर सब जगत् का स्वामी है। मनुष्य और ईश्वर का एक सम्बन्ध स्वामी व सेवक का ही प्रसिद्ध है जो वस्तुतः सत्य है। ईश्वर के साथ हमारा एक अन्य संबंध व्याप्य-व्यापक का भी है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारी आत्मा के भीतर भी विद्यमान है। संसार के प्रत्येक पदार्थ के भीतर व बाहर ईश्वर विद्यमान है। इस प्रकार व्यापक होकर वह सारे संसार को नियम में रखता व चलाता है। अतः हमें स्तुति वचनों से ईश्वर की प्रशंसा सदा करनी चाहिये तभी हम आनन्द प्रापत कर सकते हैं। यही सुख व आनन्द प्राप्ति का सरल मार्ग भी है। हमने इस लेख में ईश्वर हमारा सच्चा मित्र है तथा वह अनादि काल से हमारे साथ रहता आया है और अनन्त काल तक साथ रहेगा और एक सच्चे और अच्छे मित्र की भूमिका निभायेगा, यह सुनिश्चित है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य