स्वच्छता के दोहे
बिखरी हो जब गंदगी, तब विकास अवरुध्द
घट जाती संपन्नता, बरकत होती क्रुध्द
वे मानुष तो मूर्ख हैं, करें शौच मैदान
जो अंचल गंदा करें, पकड़ो उनके कान
पाठक जी तो कर रहे, सचमुच पावन काम
सुलभ केंद्र अब बन गया, जैसे तीरथ धाम
फलीभूत हो स्वच्छता, कर देती सम्पन्न
जहॉं फैलती गंदगी, नर हो वहॉं विपन्न
बनो स्वच्छता दूत तुम, करो जागरण ख़ूब
नवल चेतना की “शरद”, उगे निरंतर दूब
अंधकार पलता वहॉं, जहॉं स्वच्छता लोप
जागे सारा देश अब, हो विलुप्त सब कोप
मन स्वच्छ होगा तभी, जब स्वच्छ परिवेश
नव स्वच्छता रच रही, नव समाज, नव देश
है स्वच्छता सोच इक, शौचालय अभियान
शौचालय हर घर बने, तब बहुओं का मान
शौचालय में सोच हो, कूड़ा कूड़ादान
तन-मन रखकर स्वच्छ हम, रच दें नवल जहान
जीवन में आनंद तब, कहीं नहीं हो मैल
रहें स्वच्छ, दमकें सदा, गलियां, सड़कें, गैल
सभी जगह हो स्वच्छता, तो सब कुछ आसान
यही आज कहता “शरद”, है स्वच्छता मान
— प्रो. शरद नारायण खरे