ग़ज़ल
क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं;
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं।
जब कहे असलियत है सुनती नही
भटक सा ले यकीन जमती नही।
जिंदगी तपन मानके ज़लती
पीर आखों से अब छलकती नहीं।
तरस आता घिरे मुसीवत जो
मदद करके कसक ठहरती नही।
सोचते ज्ञान पा इज़ाफा हो
रेखा आसानियों उमड़ती नहीं।
— रेखा मोहन