हे मानव !
हे मानव !!
क्यों झूठ का गठरी लिए
सर्वत्र घूम रहा है
क्यों मानव होकर
दे रहा मानव को ठोकर
गलत भावनाओं से
ग्रसित
द्वेष्यता की आग में
मानवता को जला डाला
क्यों बनाता
मानवीय आकार
दिखाता एकाकार
छल-कपट
कुरीति
द्वेष-दम्भ
अवसरवादिता
दुर्भावनापूर्ण
अवसादों के
सानिध्य में
कब-तक पलोगे
कब-तक चलोगे
हे मानव !!
अब भी समय है
कुविचार से हटकर
सुविचार से सटकर
मानवता अपने
अन्दर लाओ
अन्तर्दृष्टि में झाक
देख अपनी साख
भोलापन बनना
बनावटी हँसना फिर-
मौका तलाश कर
किसी को छलना
मनमानी करना
और,सर्वोपरि बनना
क्या तुम्हें अजीब सा
नहीं लगता
या समझ नहीं पाता
या नहीं समझने का
ढोंग रचता
ऐसे विचारों के नींव पर
अच्छे होने की
क्या इमारत बना सकोगे
उसमें चैन से
निंद ले सकोगे
हे मानव !!
अभी समय बचा है
सम्भलने का
समय है सीखने का
विचार करने का
सुधार करने का
कर लो
नहीं तो
युग बदल रहा है
जमाना बढ रहा है
मरना सबको है
यह शरीर
जो चल रहा है
यही रह जायेगा
यह जानकर भी
अनजान की तरह
जीवन व्यतीत करना
मूर्खता को दर्शाना
अंधकार से
प्रकाश की ओर बढो
सम्मान से लेकर
सहयोग तक प्राप्त होगा
अंधकार में खोजोगे
तिरस्कार के आलावा
कुछ प्राप्त नहीं होगा
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रचना काल -: 09-03-2018