लेख– संसद अगर पंगु बन रहीं, तो इसके लिए जिम्मेदार पक्ष-विपक्ष दोनों
संसदीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य तो देखिए, जहां के लिए जो कार्य मुकर्रर हुआ, वहां वह नहीं हो रहा। हंगामा संसद में हो रहा, औऱ बहस टीवी पर। टीवी पर होने वाली घण्टों चिल्ल-पौ के क्या मायने। जब नीतियां संसद में बनती हैं। फ़िर टेलीविजन पर जनप्रतिनिधियों के संवाद का कोई अर्थ नहीं, वह भी बिना सिर-पैर का। लोकतंत्र को जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन कहा जाता है। ऐसे में संसदीय लोकतंत्र में बात तो जनसरोकार औऱ सामाजिक मुद्दों पर होनी चाहिए, शोर-शराबा औऱ जनप्रतिनिधियों के बीच हाथापाई नहीं। वैसे भी जब अवाम को काम के माफ़िक दाम नहीं मिलता, औऱ कुछ को तो काम भी नहीं। तो सांसदों औऱ विधायकों तो इससे सबक़ लेना चाहिए, कि उन्हें अवाम की भलाई का अवसर प्राप्त हुआ। तो उसे अच्छे से निभाएं। आज के दौर में हम विमर्श करें, तो पता चलेगा। संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट 2.5 लाख रुपए ख़र्च होते हैं, यह कहां से आता है।
उस समाज से जिसमें लोग ऐसे भी हैं, जिनके पास रहने को घर नहीं, खाने को भोजन नहीं और पीने के लिए पानी भी नहीं। फ़िर नीतियों के निर्माण की बात न होकर संसद का समय बेजा जाया क्यों करते हैं, हमारी नुमाइंदगी करने का संकल्प लेने वाले लोग। अगर हम सिर्फ बजट सत्र के दोनों सत्र की बात करें, तो अभी तक 74 घण्टे बेजा गंवा दिए गए हैं। तो अगर इसे रुपए में तब्दील करके देखें, तो देश की अवाम का 1.10 करोड़ रुपए व्यर्थ फूंक दिया उस रहनुमाई व्यवस्था ने। जो आम अवाम के लिए नो वर्क नो पेंशन की वक़ालत करती है। जिस हिसाब से संसद को हंगामे की शरणस्थली बनाया जा रहा, उससे संसदीय संस्कृति कमजोर और शिथिल पड़ रहीं। सत्ता पक्ष भले संसद न चलने की तोहमत विपक्ष पर मढ़ता हो। पर यह संसदीय लोकतंत्र के असफल होने की बानगी पेश करता है। जिसमें शायद आज के वक्त सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों को तिलांजलि दे रहीं। इससे निज़ात पाने के लिए संसद में सभी की न्यूनतम उपस्थित औऱ सवाल पूछने की प्रथा शुरू करना होगा। ऐसा न करने वालों का सत्र से निलंबन औऱ वेतनमान कटाने के साथ पांच वर्ष के दरमियान निर्धारित प्रश्न न पूछने पर अगली बार चुनाव न लड़ने दिए जानी जैसी व्यवस्था को आश्रय देना होगा, तभी संसद का महत्व शायद संसदीय लोकतंत्र में सुरक्षित रह पाएगा, औऱ जनमहत्व के विषयों पर बात।