धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि क्यों करें?

ओ३म्

मनुष्य का आत्मा चेतन तथा शरीर जड़ पदार्थों से बना हुआ होने से शरीर की सत्ता जड़ है। चेतन के प्रमुख गुण ज्ञान व कर्म करना होता है। हमारी आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है। ईश्वर भी चेतन है और हमारी आत्मा से भी सूक्ष्म है। आत्मा से भी सूक्ष्म होने के कारण यह हमारी आत्मा के भीतर भी विद्यमान है। जीवात्मा अल्पज्ञ है तथा परमात्मा सर्वज्ञ है। प्रकृति जड़ है इसलिये इसमें किंचित भी ज्ञान व स्वविवेक से कर्म करने की क्षमता व गुण  नहीं है। जड़ पदार्थ संवेदना से पूर्णतः रहित होते हैं। इन्हें किसी प्रकार का कभी कोई सुख व दुःख नहीं होता है। इस जड़ प्रकृति, जो सत्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था होती है, इससे ही ईश्वर ने यह संसार और इसके मुख्य पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, पृथिवीस्थ नाना प्रकार के पदार्थ बनायें हैं। मनुष्य भी पृथिवी के पदार्थों से अपनी आवश्यकता के अनुसार अपने ज्ञान व शारीरिक शक्ति से अपने उपयोग की वस्तुयें बनाता है। कागज, पुस्तक, मुद्रणालय, फोन, कम्प्यूटर, रेल, जहाज आदि मनुष्य से प्रकृति के पदार्थों से ही बनाये हैं। मनुष्य खेती करके अन्न व फल आदि उत्पन्न करता है, कपड़े का निर्माण करता है, पशु पालन करके गोदुग्ध व अन्य पदार्थों को प्राप्त करता है। इसी प्रकार वह कार्य प्रकृति से अपने भवन आदि बनाने की सामग्री को प्राप्त कर भवन निर्माण का काम जानने वाले व्यक्तियों से अपने लिये निवास आदि का निर्माण भी कराता है। यह इस कारण सम्भव होता है कि मनुष्य के शरीर के भीतर एक चेतन जीवात्मा है जो ज्ञान कर्म करने की क्षमता से युक्त है। यह भी ज्ञातव्य है कि मनुष्य की आत्मा में जो ज्ञान होता है वह अल्पज्ञ श्रेणी का होता है। ज्ञान दो प्रकार का होता है, स्वाभाविक एवं नैमित्तिक। स्वाभाविक ज्ञान आत्मा को अर्जित व प्राप्त नहीं करना पड़ता। वह उसे अपनी सत्ता व स्वभाव से प्राप्त रहता है अथवा ईश्वर की कृपा व पूर्व संस्कारों आदि से उपलब्ध होता है। एक पशु को तैरना सिखाना नहीं पड़ता। रेगिस्तान में उत्पन्न यदि किसी पशु को नदी आदि में डाल दें तो पहली बार पानी में गिरने पर भी तैर कर बाहर आ जाता है। इसका कारण पशु योनि में तैरने का स्वाभाविक ज्ञान ईश्वर की व्यवस्था से उपलब्ध होता है। मनुष्य के पास परमात्मा ने पांच ज्ञानेन्द्रिया और पांच कर्मेन्द्रिया दी हैं। इन इन्द्रियों से वह संसार को देखकर, सुनकर, सूंघ कर, स्वाद लेकर व स्पर्श करके पदार्थों के गुण, कर्म व स्वभावों को जानता है और उस ज्ञान का विश्लेषण व मनन कर उससे अपने ज्ञान में वृद्धि कर उससे अनेक उपयेगी पदार्थों का निर्माण भी करता है।

अविद्या क्या है इसका नाश करना आवश्यक क्यों है? इसका उत्तर है कि अल्पज्ञ, भ्रान्तियुक्त ज्ञान व अज्ञान को अविद्या कहते हैं। ईश्वर है, यह ज्ञान है परन्तु ईश्वर का स्वरूप कैसा है, इसका उत्तर अनेक मनुष्य अनेक प्रकार से देते हैं। जो सत्य ज्ञान से युक्त उत्तर देते हैं वह विद्या और जो उत्तर सत्य न हो, असत्य व अर्धसत्य हो, उसे अविद्या कहते हैं। अविद्या व अज्ञान से मनुष्य की आत्मा जीवन की उन्नति नहीं होती अपितु उसका जीवन सुख के स्थान पद दुःखमय होता है। संसार में मनुष्य ही नहीं अपितु पशु और पक्षी अन्य प्राणियों का जीवात्मा भी सुख चाहता है, दुःख एक भी आत्मा व्यक्ति नहीं चाहता। अतः यह जानना आवश्यक है कि दुःख का कारण क्या है और सुख की प्राप्ति का साधन क्या है? विचार करने पर दुःख का कारण अविद्या अज्ञान ही सिद्ध होता है। सुखी व्यक्ति को देखें तो सुख का कारण भी विद्या ज्ञान ही ज्ञात होता है। अतः मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य अपने जीवन से अविद्या अज्ञान को दूर करना सिद्ध होता है। अज्ञान को दूर करना ही अविद्या का नाश कहलाता है। इसके विपरीत विद्या की प्राप्ति ही सुख का साधन है। यह विद्या माता, पिता व आचार्यों सहित पुस्तकों के अध्ययन व विद्वानों की संगति से प्राप्त होती है। विद्या का प्रमुख व सर्वोपरि ग्रन्थ ईश्वर प्रणीत ज्ञान चार वेद हैं। वेद का अध्ययन करने से पूर्व वेदांग व उपांगों का अध्ययन करना आवश्यक है। वेदों के 6 अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष हैं। इन विषयों का अध्ययन कर लेने पर मनुष्य को वेद के देव भाषा संस्कृत के मंत्रों के अर्थों का ज्ञान हो जाता है। वेद और वेदांग से पूर्व 6 दर्शनों, उपनिषदों, मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का अध्ययन भी उपयोगी होता है। ऋषि दयानन्द ने देशवासियों पर कृपा करके वेदों का सरल व सुगम वेदभाष्य संस्कृत व हिन्दी भाषाओं में उपलब्ध कराया है। इससे साधारण हिन्दी पढ़ने की योग्यता रखने वाला मनुष्य भी वेद के रहस्यों को समझ सकता है। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ अविद्या दूर कर विद्या प्रदान करने वाले संसार के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इनका अध्ययन किया हुआ व्यक्ति किसी महाविद्यालय के प्रवक्ता व स्नातक के समान ही शिष्ट, शिक्षित, संस्कारवान व चरित्रवान होता है।

विद्या के बारे में कहा गया है कि विद्या ददाति विनयं।’ इसका अर्थ है विद्या से मनुष्य में विनयशीलता व स्वभाव एवं व्यवहार में नम्रता, विनीतभाव, सहिष्णुता, देशभक्ति, परोपकार व दान की भावना, ईश्वरोपासना, कृतज्ञता, माता-पिता-आचार्य व विद्वानों के प्रति आदर भाव सहित समाज के प्रति सहयोग एवं समानता का भाव उत्पन्न होता है। यह विशेष गुण हमारी स्कूली या महाविद्यालयी शिक्षा से नहीं आते। यह वैदिक साहित्य या ईश्वरोपासना आदि से अथवा गुरुकुलीय शिक्षा से आते हैं। विचार करने पर प्रतीत होता है कि मनुष्य में सभी उत्कृष्ट गुण विद्या के केन्द्र हमारे वैदिक मान्यताओं पर चलने वाले गुरुकुल या वैदिक साहित्य के अध्ययन से ही प्राप्त होते हैं। स्कूली शिक्षा से हमें केवल भाषा, गणित, विज्ञान व कुछ कला विषयों का ज्ञान तो होता है परन्तु उससे हमारा चरित्र व व्यवहार नहीं सुधरता। यदि ऐसा होता तो आज हमारा देश भ्रष्टाचार और दुष्कर्मों से पूर्णतः मुक्त होता। इसके विपरीत हम राम, कृष्ण, चाणक्य, शंकर, दयानन्द, श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि इन महापुरुषों के जीवन में सभी प्रकार के गुण विद्यमान थे और उनमें किसी अवगुण के होने का ज्ञान नहीं होता। अतः देश के सुविज्ञ जनों को वैदिक शिक्षा को प्रमुख अग्रणीय स्थान देना चाहिये। ऐसा होने पर ही देश महान व शक्तिशाली एवं समृद्ध राष्ट्र सहित सभी प्रकार के अन्धविश्वासों एवं सामाजिक असमानताओं से मुक्त हो सकता है। अतः इन सभी उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए हमें विद्या की वृद्धि करनी परमावश्यक है।

विद्या से अमृत व मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। विद्या के अन्तर्गत ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान भी सम्मिलित है। ईश्वरोपासना व शुद्ध आचरण भी विद्या से प्राप्त होता है। यही हमें अमृत व मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। मोक्ष प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। अतः विद्या व इसका पर्याय वेद ज्ञान के मनुष्यों मनसा, वाचा, कर्मणा प्रयत्नशील रहना चाहिये। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य