धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्यसमाज की स्थापना एवं वेद प्रचार एक दैवीय एवं पुण्य कार्य

ओ३म्

हम ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा चैत्र शुक्ल पंचमी संवत् 1932 को आर्यसमाज की स्थापना के कार्य को एक दैवीय एवं पुण्य कार्य मानते हैं। इसका कारण यह है कि ऋषि दयानन्द जी का यह कार्य भी हमें सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा वेदोत्पत्ति के बाद सर्वाधिक दैवीय व पुण्य कार्य प्रतीत होता है। दैवीय कार्य यह इसलिये है कि सभी शुभ कार्य जीवात्मा की पवित्रता और ईश्वर की प्रेरणा एवं सहाय से ही सम्पन्न होते हैं। हम अपने जीवन में जो भी शुभ कार्य करते हैं उसमें हमारे माता, पिता, गुरुजनों की शिक्षा, आशीर्वाद सहित हमारे अध्ययन व हमारी आत्मा की पवित्रता सहयोगी होती हैं। इस लिए आर्यसमाज की स्थापना दैवीय कार्य है। इसलिये कि आर्यसमाज के द्वारा देश अपने वेदकालीन स्वर्णिम अतीत से परिचित होने के साथ देश की उन्नति, स्वतन्त्रता, चरित्र निर्माण, देश निर्माण, सभी को समान रूप से शास्त्रीय शिक्षा का दान व अधिकार मिलना, सामाजिक असमानता को अनुचित बताना व उसे दूर करने का संकल्प देने सहित वेदों का पुनरुद्धार व अनेकानेक कार्य आर्यसमाज के नेतृत्व में देश में हुए हैं। यदि आर्यसमाज न होता तो आज देश निश्चय ही दुर्दशा को प्राप्त होता। ऋषि दयानन्द के काल व उससे पूर्व हिन्दुओं का जो धर्मान्तरण किया जाता था, जिसमें हमारे हिन्दुओं के पण्डितों व उनकी अन्ध परम्परायें सहयोग कर रही थीं, उन पर पूर्ण विराम तो आर्यसमाज व इसके अनुयायियों ने लगाया ही, अपितु कई कई पीढ़ियों पूर्व विधर्मी बने अपने बिछुड़े बन्धुओं को भी पुनः शुद्ध करके उन्हें वृहद आर्य हिन्दू वैदिक समाज में मिलाया भी है। देश से अशिक्षा दूर करने में भी आर्यसमाज की प्रमुख व महद् भूमिका है। ऋषि के समय में वेद लुप्त प्रायः थे। वेदों के यथार्थ अर्थों का तो किसी पण्डित व धर्माचायों को किंचित भी ज्ञान नहीं था। ऋषि दयानन्द ने ही अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वेदों को प्राप्त कर उनके मन्त्रों के प्राचीन ऋषियों की मान्यताओं के अनुकूल यथार्थ अर्थों व भाष्यों को हमें उपलब्ध कराया। जो वेद केवल ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे, परन्तु पढ़ते नहीं थे, उन्हें सर्वसाधारण तक में उनके संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में यथार्थ अर्थ करके अर्थात् पदार्थ व्याख्यां सहित उपलब्ध करा दिये। वेदों की जो बातें पण्डितों व धर्माचार्यों को ज्ञात नहीं थी, वेदों का हिन्दी में भाष्य कर ऋषि दयानन्द ने उसे साक्षर लोगों तक पूरी प्रामाणिकता के साथ उपलब्ध कराया। हम जैसे साधारण लोग भी वेदों एवं पर्याप्त वैदिक साहित्य को पढ़कर ईश्वर व जीवात्मा तथा उपासना आदि के यथार्थ स्वरूप व महत्व को समझ सके, यह सब भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की ही देन है।

ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के मनुष्य जाति पर इतने उपकार हैं कि उन सबको बताना व जानना कठिन है। एक उपकार यह भी है कि ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने देश देशान्तर के लोगों को ईश्वर के सच्चे स्वरूप का परिचय कराया और उपासना द्वारा उन्हें ईश्वर की अनुभूति करने के उपाय व साधन भी प्रस्तुत किये। मनुष्य को इससे अधिक और क्या चाहिये? उज्जवल चरित्र क्या होता है और उससे मनुष्य को जन्म जन्मान्तरों में क्या क्या लाभ होते हैं, उसे आर्यसमाज के सभी सदस्य व अनुयायी भली भांति जानते हैं। यह किसी धन-दौलत व सम्पदा से कम मूल्यवान नहीं हैं। शताधिक गुरुकुल और दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज खोलकर भी आर्यसमाज ने शिक्षा जगत में क्रान्ति की जिसके पीछे ऋषि दयानन्द जी की ही प्रेरणा थी। यह बात और है कि बाद में वह कुछ कुचक्रों में फंस गये और देश व समाज का जितना हित हो सकता था, उतना नहीं हो सका। इन सभी कारणों से हमें आर्यसमाज की स्थापना दैवीय या ईश्वरीय कार्य ही प्रतीत होता वा सिद्ध होता है। जो भी दैवीय कार्य होता है वह पुण्य कार्य ही होता है। इस आधार पर आर्यसमाज की स्थापना एक अतीव पुण्य कार्य है। संक्षेप में यह भी कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीयों अपितु विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिए मोक्ष का मार्ग जो सदियों से बन्द पड़ा था, उसे सबके लिए खोल दिया और उनके इस कार्य से देश विदेश के कई लोग परमधाम की यात्रा पर अग्रसर हुए व कुछ ने परमधाम मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त भी किया।

आर्यसमाज के अनेक कार्यों में से एक कार्य धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं एवं रूढ़ियों का खण्डन व उन पर प्रहार करना था। ऐसा इसलिए आवश्यक था कि इनके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति विनाशोन्मुख होकर इतिहास में घटती घटती समाप्ति की ओर बढ़ रही थी। इसको सबसे अधिक हानि पुराणों के अतार्किक सिद्धान्तों व मान्यताओं, बौद्ध, जैन, ईसाई व इस्लाम मत ने पहुंचाई थी। सिख मत नाम से इसके बहुत से बन्धु इससे पृथक हो गये थे। इनमें से ईसाई व इस्लाम मत ऐसे थे जो वैदिक धर्म अर्थात् सनातन धर्म के बन्धुओं का इसके अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं व रूढ़ियों के कारण उपहास करते हुए इसके अनुयायियों को लोभ व छल कपट सहित भय आदि के द्वारा धर्मान्तरण करते थे। यदि ऋषि दयानन्द ऐसा न करते तो आज वैदिक मत की जो दुर्दशा होती उसका हम अनुमान भी नहीं कर सकते। ऋषि दयानन्द ने सनातन वैदिक धर्म में उत्पन्न व प्रचलित अन्धविश्वासों के अर्न्तगत मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, ज्नमना जातिवाद, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, अनमेल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, विभिन्न जातियों व समुदायों में परम्पराओं के नाम पर भेदभाव का जोरदार खण्डन किया। इसका विकल्प भी उन्होंने वेद व वेदभाष्य, वैदिक साहित्य के अन्तर्गत दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि आदि देकर व धर्म व समाज विषयक तर्क व युक्तिप्रधान मान्यताओं का प्रचार करके किया। उनके प्रचार का प्रभाव हुआ। पठित समाज उनके प्रचार से प्रभावित होकर उनके सिद्धान्तों को अपनाने लगा। धीरे धीरे आर्य धर्म पर विश्वास करने वाले धर्मप्रेमी बन्धुओं की संख्या बढ़ने लगी।

स्वामी जी ने एक प्रमुख व महत्वपूर्ण कार्य आर्यसमाज की स्थापना कर व उसे प्रजातान्त्रिक स्वरूप प्रदान करके किया। आर्यसमाज का मुख्य सिद्धान्त है वेद और वेदानुकूल मान्यताओं जो तर्क व युक्ति के अनुकूल, ज्ञान विज्ञान सम्मत तथा मनुष्य व समाज के लिए हितकर हैं, उन्हें स्वीकार करना और इसके विपरीत वैदिक व इतर साहित्य में जो भी लिखा गया, कहा गया या जो प्रचलित हुआ, उसे अस्वीकार किया। ऋषि दयानन्द ने वैदिक वा नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा जिसमें संस्कृत व हिन्दी को प्रमुख स्थान प्राप्त हो, का प्रचार किया। इतना ही नही, ऋषि दयानन्द ने अपनी मान्यताओं का खुल कर प्रचार किया। उन्होंने दूसरे मत-मतान्तरों की तरह अपने मत की बातों को गुप्त व छिपा कर नहीं रखा। स्वामी दयानन्द जी ने अन्य मतों के आचार्यों को शास्त्रार्थ, वार्तालाप आदि की चुनौती दी। उन्होंने प्रायः सभी मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ किये और वेदों की मान्यताओं को सत्य व प्रामाणिक सिद्ध किया। सभी मतों में अविद्या व अज्ञान की बातें भरी हुई हैं, इसका प्रकाश व यथार्थ तथ्यों का अनावरण भी उन्होंने किया। वीर विनायक दामोदर सावरकर जी ने सत्य ही लिखा है कि जब तक ऋषि दयानन्द जी का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ विद्यमान है, संसार का कोई भी मत, सम्प्रदाय व तथाकथित धर्म आदि अपने अपने मत की शेखी नहीं बघार सकते।

आज संसार में वेदमत को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। सभी मतों के ग्रन्थों में सृष्टि उत्पत्ति व पालन आदि की जो मान्यतायें हैं वह अज्ञानपूर्ण सिद्ध हुई हैं। ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश के 11 से 14 तक के समुल्लास में इस पर प्रकाश डाला है। इसके विपरीत ऋषि ने वेद के आधार पर तर्क देकर ईश्वर, जीव व प्रकृति को अनादि तत्व सिद्ध किया है। ईश्वर पूर्व कल्पों के अनुसार अपनी सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमतता से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति व पालन करते हैं। दर्शन के अनुसार मूल सत्व, रज व तमों गुणों वाली प्रकृति का प्रथम विकार महत्तत्व होता है, उसके बाद अहंकार, इससे भिन्न भिन्न पांच सूक्ष्मभूत यथा श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां यथा वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा और ग्यारहवां मन, कुछ स्थूल, उत्पन्न होते हैं। पांच तन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूल भूत, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश, जिन को लोग प्रत्यक्ष देखते हैं उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर उत्पन्न होता है। यह ज्ञान की बातें भी वैदिक साहित्य व विचारें की देन है जिसमें बताया गया है कि आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती अपितु अमैथुनी होती है। परमात्मा आदि सृष्टि में अमैथुनी सृष्टि कर स्त्री व पुरुषों के शरीर बनाकर उन में जीवों का संयोग कर देते हैं तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण व ज्ञानवर्धक विचार व रहस्य की बातें ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में बताईं हैं। संसार के किसी मत में यह ज्ञान व विज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। इससे भी वेदमत की सर्वोपरि महत्ता सिद्ध है।

स्वामी दयानन्द जी की मनुष्य जाति को अनेक देन हैं। ईश्वरोपासना का स्वरूप व यथार्थ विधि प्रदान कर भी उन्होंने इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। स्वामी दयानन्द जी ने यज्ञ व अग्निहोत्र विज्ञान व उससे होने वाले लाभों को मनुष्यों को समझाया। वेदों व वेदाधारित साहित्य में विमान की चर्चा से भी देश को परिचित कराया। यह उल्लेख तब किये जब कि विश्व में कहीं विमान का विचार नहीं किया गया था। आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत, धनवन्तरि आदि ऋषियों के ग्रन्थों, ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त से भी उन्होंने हमें परिचित कराया। ब्रह्मचर्य की महत्ता को उनके समय का देश व समाज विस्मृत कर चुका था, उसका भी ज्ञान कराया। मनुष्य जीवन का उद्देश्य वैदिक साधनों से मुक्ति प्राप्त करना है जिससे मनुष्य की आत्मा जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होती है, इसका युक्तिसंगत ज्ञान भी हमें ऋषि दयानन्द ने ही कराया है। इसके साथ परोपकार व दान का जीवन में क्या महत्व है और इससे हमारा वर्तमान व मृत्योतर जीवन कैसे प्रभावित व लाभान्वित होता है, इसका ज्ञान भी हमें दयानन्द जी ने कराया है। महाभारत काल के बाद के पांच हजार वर्षों तक हम इन समस्त लाभप्रद बातों से दूर रहे और दुर्दशा को प्राप्त हुए। ऋषि दयानन्द ने उस धारा को बन्द कर ज्ञानधारा प्रवाहित कर देश की उन्नति व स्वतनत्रता की नीवं को पुख्ता किया। इस कारण से हम ऋषि दयानन्द के आविर्भाव व उनके कार्य आर्यसमाज की स्थापना आदि को दैवीय व पुण्य कार्य अनुभव करते हैं। ऋषि दयानन्द ने अनेक विषयों पर मौलिक व देश के लिए उपयोगी विचार प्रस्तुत कर वैदिक धर्म को संसार का सर्वश्रेष्ठ धर्म सिद्ध किया है। आर्यसमाज के चैत्र शुक्ल पंचमी तदनुसार इस वर्ष 22 मार्च, 2018 को स्थापना दिवस के अवसर पर हम ऋषि दयानन्द को स्मरण कर उन्हें नमन करते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य