“नई पुरुवाई”
धूम-धाम से झिनकू भैया के सुपुत्र की शादी हुई और पढ़ी लिखी आधुनिक परिवेष में रची पगी बहू का लक्ष्मी स्वरूपा पाँव घर की देहरी के भीतर विधि विधान से अपना छाप छोड़ता हुआ साफ सुथरे आँगन बिछलाने लगा। सासु जी सुंदर बहू के मुँह दिखाई में तल्लीन हो गईं और गाँव की गलियों में तरह-तरह की कंफुन्सी एक खास राग में गुंजित होने लगी। अब नई-नई गीत-गवनई किसे रास नहीं आती, कान पार कर लोग उसका स्वाद लेने लगे। कुछ दिन चकल्लस हुआ और गाँव में किसी नई दुल्हन के आगमन पर गीत का रुख बदल गया और झिनकू भैया का घर बहुत जल्दी साक-पाक हो गया।
इधर नई बहुरिया किचन से लेकर रोशनदान तक की साफ सफाई में लाल- गरम होती रही और घर के चद्दर-तकिया कवर सब के सब नए हो गए। अब बारी भौजी-भैया और पुराने डिब्बों की थी जो सामान की सुरक्षा करते-करते इतने काले हो गए थे कि बहू के नुकीले नाखून को खराब करने लगे और उन्हें रसोई घर से बाइज्जत बरी कर दिया गया। पर झिनकू भैया के किराने की दुकान और थैला अभी भी शेष रह गया जिसमें भैया सामान भर कर घर लाते थे। एक दिन बहू की निगाह प्लास्टिक के पन्नी में ठूंसी हुई हरे मटर पर पड़ गई और उसने साफ-साफ कह दिया कि अब इस घर में किराने की दुकान से कोई भी सामान नहीं आएगा, हम खुद मॉल में जाकर ब्रांडेड सामान लाएंगे और तभी से चमकीले पैक में खो गए भैया और मंहगाई के साथ ही साथ पेट के रोगी हो गए। कहते फिरते हैं जिस पैक को देखकर लोग मॉल से सामान लाते हैं उसमें सामान तो दिखता नहीं और खुलने पर सुंदरता कचरे में चली जाती है और कचरा पेट में, पैक आटा खोल कर दिखाने लगे जिसमें तमाम घुन रेंग रहे थे और रोटी कीचक रही थी। फिर उठ गया है भैया का झोला और गेंहू चक्की पर पीसने लगा है। जिसे भौजी ने धो बनाकर सूखा दिया था और रोटी फूलने लगी है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी