हर आंदोलन का यही अंजाम होता है,
आखिर में बेबस आम आदमी रोता है।
दुकानें, रेहड़ी सिर्फ उसकी जलती हैं,
सोचो ठेकेदार और नेता क्या खोता है।
क्या मिलता है इमारतों को जलाकर,
आम आदमी ही उनका बोझ ढ़ोता है।
भूल जाते हो मुश्किल से बसें मिलती हैं,
अपनी ही पूंजी को फिर भी डुबोता है।
जिम्मेदारी कोई नहीं लेता नुकसान की,
दूसरों पर डालकर अपने पाप धोता है।
सोचो हर बार मार किस पर पड़ती है,
क्यों आकर बहकावे में भ्रम में सोता है।
हर बार चेताती है “सुलक्षणा” तुमको,
क्यों पछतावे के सागर में लगाता गोता है।
— डॉ सुलक्षणा