ग़ज़ल
कातिल हैं जो भेस बदल के चारागर हो जाते हैं
राह जिन्हें मालूम नहीं खुद वो रहबर हो जाते हैं
इश्क है जब पैगाम-ए-रब तो फिर सारे दुनिया वाले
धर्म की आड़ में क्यों नफरत के सौदागर हो जाते हैं
न जाने कैसी हवा चली कि तेरे शहर में लोगों की
सूरत काँच सी रहती है और दिल पत्थर हो जाते हैं
सलूक किसी से कैसा करना गरज ही अब तय करती है
मतलब हो तो नीम सरीखे भी शक्कर हो जाते हैं
जो परवान चढ़े तो बनवा देती है ये ताज महल
मुहब्बत हो नाकाम तो लोग अक्सर शायर हो जाते हैं
— भरत मल्होत्रा