आन्दोलन या अराजकता
भारत में लोकतन्त्र अराजकता का पर्याय बनता जा रहा है। संसद के हर सत्र में सत्ता न मिलने की कुंठा से ग्रस्त वंशवादी राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह अराजकता फैलाकर संसद का कामकाज ठप्प कर रखा है, उसका वीभत्स रूप पिछले २ अप्रिल को दलितों के आह्वान पर भारत बंद में देखने को मिला। पिछले कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि कोई भी आन्दोलन बिना हिन्सा के समाप्त नहीं हो रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में मुस्लिमों द्वारा मुंबई के आज़ाद पार्क में आयोजित धरना प्रदर्शन देखते ही देखते हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। बसें जलाई गईं और हिन्दुओं की दूकनें फूंक दी गईं। कई लोगों को मौत के घाट भी उतारा गया। आरक्षण के लिए जाट आन्दोलन, गुर्जरों का आन्दोलन, पाटीदारों का आन्दोलन भी हिंसक रूप ले चुका है। सरकारी बसों को जलाना, रेलवे लाइन पर धरना देकर ट्रेनों को रोकना, पुलिस पर हिंसक हमला और आगजनी आज के अन्दोलनों के आवश्यक अंग बन चुके हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र, आरक्षण और पानी के लिए लगभग सारे राजनीतिक दल आये दिन आन्दोलन करते रहते हैं, जो गहरी चिन्ता का विषय है। एक फिल्म के रिलिज को लेकर राजस्थान और अन्य प्रदेशों में राजपुतों के संगठन करणी सेना ने जो हास्यास्पद आन्दोलन किया उसका मतलब समझ में नहीं आया। बिना फिल्म देखे लोगों की भावनाओं को भड़काया गया और अपार सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। फिल्म रिलिज भी हुई और चली भी। आत्मदाह की धमकी देनेवाले करणी सेना के जवान और महिलाएं बिल में घुस गईं। समझ में नहीं आया कि वह आन्दोलन किसके इशारे पर चलाया गया। कभी-कभी संदेह होता है कि इसके पीछे फिल्म की पब्लिसिटी के लिए फिल्म के निर्माता का हाथ तो नहीं था! मैं अमूमन आजकल की फिल्में नहीं देखता, लेकिन आन्दोलन के कारण जिज्ञासा इतनी बढ़ी कि ३०० रुपए का टिकट लेकर मैंने फिल्म देखी और कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।
पिछले २ अप्रिल को दलितों द्वारा किया गया हिंसक भारत बंद भी बेवज़ह था। निर्णय सुप्रीम कोर्ट का था और खामियाजा भुगता सरकारी संपत्ति और जनता ने। आन्दोलन के दौरान ९ निर्दोष लोगों की हत्या की गई और करोड़ों की सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। पूरा आन्दोलन प्रायोजित था। आन्दोलनकारी लाठी डंडा, तलवार, पेट्रोल और आग्नेयास्त्रों से लैस थे। उन्होंने मासूम बच्चों को ले जा रही स्कूल बसों को भी अपना निशाना बनाया। इस आन्दोलन ने सामाजिक समरसता को तार-तार कर दिया। अगर समाज के दो वर्ग इसी तरह आपस में भिड़ते रहे तो देश का क्या भविष्य होगा। श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री बनने के बाद से ही वंशवादी जो दिल्ली की गद्दी को बपौती मान रहे थे, तरह-तरह के हथकंडे फैलाकर सरकार को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे हैं। कभी ये हैदराबाद यूनिवर्सिटी जाकर जातिवाद को हवा देते हैं, तो कभी जे.एन.यू. में जाकर भारत के टुकड़े करने का मंसूबा पाल रहे देशद्रोहियों के साथ धरने पर बैठते हैं, कभी गुप्त रूप से सपरिवार चीनी राजनयिकों से भेंट करके गुप्त योजनाएं बनाते हैं, कभी आतंकवादियों के पक्ष में गुहार लगाते हैं तो कभी पाकिस्तानी मदद के लिए अपने विश्वस्त को पाकिस्तान भेजते हैं। इनका एकमात्र एजेंडा है, दिल्ली की सत्ता पार काबिज़ होना। इसके लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब २ अप्रिल को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की किसी विपक्षी पार्टी ने निन्दा नहीं की, उल्टे मौन समर्थन दिया। हमेशा उटपटांग बयान देनेवाले राहुल बाबा ने तो सारा दोष भाजपा पर मढ़ते हुए कहा कि SC/ST Act भंग कर दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि इस तरह का कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सरकार ने उसी दिन Review Petition भी फाईल कर दिया लेकिन कर्नाटक की जनसभाओं और ट्विट के माध्यम से राहुल बाबा ने दलितों को भड़काने का अभियान जारी रखा। उन्होंने दलित समाज की दयनीय स्थिति के लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया। झूठा और गैरजिम्मेदाराना बयान देने के कारण ही राहुल बाबा की विश्वसनीयता हमेशा संदेह के घेरे में रहती है। लेकिन देश तोड़ने के लिए उनकी गतिविधियों पर केन्द्र सरकार को पैनी दृष्टि रखनी चाहिए। यह कैसा लोकतन्त्र है जिसमें कन्हैया, ओवैसी, आज़म, फ़ारुख, माया, ममता, केजरीवाल और राहुल बाबा को कुछ भी कहने और करने का विशेषाधिकार प्राप्त है? लोकतन्त्र और देश की अखण्डता के लिए यह कही से भी शुभ संकेत नहीं है। राष्ट्रप्रेमियों को इसकी काट के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए।