अपना-अपना दृष्टिकोण
कुछ दिन पहले एक शहर में, लगा चित्रों का मेला,
एक चित्र को देख रहा था, एक खिलाड़ी अकेला.
दुःखी-दुःखी नर के चेहरे को, देख खिलाड़ी बोला,
”हार गया है मैच बिचारा, इसीलिए मन डोला”.
आया एक वकील वहीं पर, बोला, ”नहीं यह बात,
हार गया है कोई मुकदमा, तभी लगा व्याघात”.
डॉक्टर बोला, ”नहीं-नहीं, यह है, असाध्य रोग से पीड़ित”,
टीचर बोला, ”पाठ भूल गया, इसीलिए यह चिंतित”.
विद्यार्थी का मत था, ”शायद, फेल हो गया यह भी”,
ज्योतिषी को नक्षत्रों की, महिमा लगती थी.
कवि का कहना था, ”इसने भी, कवि सम्मेलन में खाई मात”,
व्यवसायी को लगती थी, यह दिवालियेपन की शुरुआत.
कहने लगा महाजन, ”शायद, कर्ज चुका नहीं पाता,
बार-बार ऋणदाता शायद, इसका द्वार खटकाता”.
गॉर्ड रेल का एक वहां पर, चित्र देखकर बोला,
”शायद छूट गई है गाड़ी, हाय बिचारा भोला”!
”जुए में सब हार गया है”, एक जुआरी बोला,
”अफसर ने है झाड़ पिलाई”, बाबू बढ़कर बोला.
अपना-अपना मत बतलाते, देख देहाती चुप न रहा,
”का बरखा जब कृषि सुखानी, बेचारे का चैन गया”.
एक प्रेमिका बड़ी दुखित हो, बोली, ”भाग्य का मारा है”,
तोड़ गई दिल इसका झन्न से, कोई षोड़शी बाला है”.
एक दार्शनिक बहुत देर से, चित्र देख रहे चुपचाप,
”इस संसार में कौन सुखी है? सबको है कोई संताप”.
एक चित्रकार ने चित्र देखकर, कहा, ”कितनी स्वाभाविकता!”
इस प्रकार सबकी दृष्टि में, होती कितनी है भिन्नता?
सभी हर चीज को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखते हैं. चित्र को सबने अपने दृष्टिकोण से देखा, इसलिए सबका अपना-अपना मत था.