लेख– नाईक और सचिन ने दिखाई राह, क्या दूसरे भी चलेगें उस रास्ते पर?
हमारा मुल्क़ कमज़ोर नहीं है, क्योंकि वह कल सोने की चिड़िया था। साथ में आने वाले वक्त में भी रहेगा। पर दुख इस बात का होता है, जब पता चलता है, कि जिसे देश चलाने का जिम्मा मिला है, वहीं लोग देश को कंगाली की तरफ़ अग्रसर करने में लगे हैं। ऐसा इसलिए कहा, कि उस देश में यह कहाँ तक जायज़ होगा। जहां कि करोड़ों आबादी दो वक्त की रोटी के लिए तरसती है। वहां के एक राज्य महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री कार्यालय में एक वर्ष के दौरान 3.34 करोड़ की चाय पी ली जाती है। यह जनता के पैसे की सरासर बर्बादी नहीं तो क्या है। ऐसे में सवाल तो यहीं क्या अपने हित के आगे जनतांत्रिक व्यवस्था को रहनुमाई व्यवस्था भूल तो नहीं गई।
आज के उस दौर में माननीयों के वेतनमान में वृद्धि की बात समय-समय पर होती रहती है। जब लोकसभा के 545 सांसदो में से 443 सांसद करोड़पति और अरबपतियों की श्रेणी में शामिल हैं। इसके साथ देश के 4219 विधायकों में से 2391 करोड़पति हैं। फ़िर हम कैसे जांचे-परखें की लोकशाही नीतियों में ग़रीब, युवा और समाज और संस्कृति से ज़ुड़े मसलें शामिल हैं। वर्तमान समय में एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 79 करोड़ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी प्रतिदिन की आय 25 रुपए से भी कम है। फ़िर पहली प्राथमिकता रहनुमाओं की किसके प्रति होनी चाहिए। जब देश की आधे से अधिक आबादी के पास दो जून की रोटी नहीं होगी, फ़िर वे स्वच्छ और स्वस्थ बोतलबंद पानी कहाँ से ख़रीदकर पी सकेंगे। आज के दौर में मौत सिर्फ़ भोजन न मिलने से देश में नहीं हो रही, बल्कि दूषित पानी पीने से भी 73 लोगों की प्रति घण्टे मौत हो रहीं। ऐसे में शायद लगता यहीं है। हमारी नीति-नियंता प्रणाली अपना राजधर्म सही से नहीं निभा पा रहीं है।
ऐसे में अगर कोई आशा की किरण दिखी तो उस पर अमल हमारे रहनुमाओं को करना चाहिए। आज के राजनीतिक परिवेश में दो नज़ीर बीते कुछ दिनों में देखने को मिली। जिसका स्वागत भी होना चाहिए, और उससे राजनीति को कुछ सीख भी लेनी चाहिए। आज के वैश्विक दौर में हमारे देश में दो सर्वव्यापी समस्या देखी जाए, तो वह है। पहली युवाओं को व्यापक स्तर पर प्रतिनिधित्व न मिल पाना। दूसरा ग़रीबी के साथ भुखमरी। हमारे देश के सियासतदां ऐसा नहीं इस विषय पर बात नहीं करते। बात तो होती है, लेकिन अमल नहीं होता। बात युवाओं को राजनीति में लाने की होती है, औऱ ग़रीबी-भुखमरी दूर करने की भी समय-समय पर होती है। पर दुर्भाग्य ग़रीबी का नारा तीन दशक से ज़्यादा समय से चला आ रहा, और ग़रीबी कम हुई नहीं। साथ में अगर राजनीति में युवाओं की बात करें, तो युवाओं की संख्या भी काफ़ी कम है। तो क्या अब उम्मीद की जाएं, जब कांग्रेस के शांताराम नाइक ने बीते दिनों 72 वर्ष की आयु में राजनीति से अलग इसलिए हो गए, ताकि युवाओं को मौका मिल सकें। साथ में सचिन तेंदुलकर ने अपने राज्यसभा के सांसद के रूप में मिलने वाले वेतनमान को उस समय दान कर दिया। जिस दौर में माननीयों को सबसे ज़्यादा फ़िक्र अपनी झोली की रहती है। ऐसे में ये दोनों परिघटनाएं स्वागत योग्य होने के साथ नए सवेरे का दस्तक़ हमारे राजनीतिक व्यवस्था को दे सकती हैं। बशर्तें कि इसे नज़ीर के रूप में सियासतदां देख सकें।
वैसे नाइक और तेंदुलकर ने जिस कार्य को अंजाम दिया है, उसकी उम्मीद आज के भारतीय रहनुमाओं से नहीं किया जा सकता। अगर बात शांताराम नाइक की उम्र की करें। तो उनकी उम्र सिर्फ़ 72 वर्ष है, और उनसे अधिक उम्र के नेताओं की लंबी लिस्ट हमारे देश में है। जिसमें कांग्रेस कार्यसमिति के मोतीलाल वोहरा 89, मनमोहन सिंह और एंटनी जैसे 80 के ऊपर के नेता कांग्रेस में हैं। तो भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, अकाली दल में प्रकाश सिंह बादल, डीएमके के नेता करुणानिधि सरीखे 80 वर्ष से अधिक के वयोवृद्ध राजनीति का हिस्सा बने हुए हैं। जिस दौर में कोई नेता अपनी मर्ज़ी से पद छोड़ने को तैयार नहीं, युवाओं को राजनीति में जगह देने का वादा करने के बाद भी। उस दौर में नाइक एक उदाहरण के रूप में सामने आए हैं। युवाओं को राजनीति में आश्रय देने की बात सभी दल करते हैं, लेकिन अमल नहीं होता। तो क्यों न एक क़ानून पारित कर किसी संगठन में काम करने औऱ चुनाव लड़ने की आयुसीमा निर्धारित कर दी जाए। जब हर क्षेत्र में काम करने के लिए आयुसीमा का प्रावधान है। इससे युवा विचारों का लाभ भी देश को मिलेगा, औऱ युवाओं के लिए नीतियां भी अच्छी बनेगी। साथ में सचिन से उन सांसदों को भी सीख लेना चाहिए, जिन्हें लाख-ड़ेढ़ लाख का वेतनमान उस परिस्थितियों में कम लगता है। जिस देश में लगभग 19 करोड़ जनसंख्या को दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती, और अनगिनत माननीय कुबेरनाथ बन बैठे हैं।