” —————– क्रुद्ध हैं जंगल ” !!
लांघ दी सीमाएं हमने ,
क्रुद्ध है जंगल |
घट रहा विस्तार ,
हो रहा शमन |
भयभीत हम ,
बढ़ते अतिक्रमण |
बादलों की बदमिज़ाजी –
अब कहाँ दलदल ||
कट रहें हैं पेड़ ,
घटती हुई छाया |
दरिया नहीं बहते ,
धूप- सरमाया |
प्रकृति आँचल समेटे –
सुरक्षित नहीं कल ||
बढ़ रहा पलायन ,
भागते हैं दल |
हिरण नीलगाय हैं ,
प्यासे – विकल |
मन लुभाती हरियाली –
बन गई है छल ||
प्रेम प्यासे वन्य ,
गोलियां खाते |
अब ढूंढकर शिकारी ,
लाये वहाँ जाते |
नेता रहे चिंतित जहाँ –
मचती सदा खलबल ||
काम आये सर्वदा ,
मनुज के लिए |
बदले में हमें क्या ,
घाव ही मिले |
हथियारों से लेस जन-मन –
अब कहाँ निश्छल ||