पूर्वोत्तर भारत के महान संत श्रीमंत शंकरदेव
असमिया साहित्य, संस्कृति, समाज व आध्यात्मिक जीवन में युगांतरकारी महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव का अवदान अविस्मरणीय है । उन्होंने पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक मौन अहिंसक क्रांति का सूत्रपात किया । उनके महान कार्यों ने इस क्षेत्र में सामाजिक- सांस्कृतिक एकता की भावना को सुदृढ़ किया । उन्होंने रामायण और भगवद्गीता का असमिया भाषा में अनुवाद किया । पूर्वोत्तर क्षेत्र में वैष्णव धर्म के प्रसार के लिए आचार्य शंकरदेव ने बरगीत, नृत्य–नाटिका (अंकिया नाट), भाओना आदि की रचना की । उन्होंने गांवों में नामघर स्थापित कर पूर्वोत्तर क्षेत्र के निवासियों को भाईचारे, सामाजिक सद्भाव और एकता का संदेश दिया I श्रीमंत शंकरदेव का जन्म 1449 में वर्तमान नगाँव जिले के बोरदोवा के निकट अलीपुखुरी में हुआ था। बचपन में ही उनकी माता सत्य संध्या का निधन हो गया। उनके पिता का निधन भी बचपन में हो गया था और उनकी दादी ने उनका पालन – पोषण किया । उन्होंने 13 साल की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा शुरू की और 17 वर्ष की आयु तक अपनी शिक्षा पूरी कर ली । उन्होंने बचपन में ही अपनी बुद्धिमत्ता और प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत कर दिया था । उनकी शादी जल्द हो गई थी लेकिन शादी के तीन वर्ष बाद ही उनकी पत्नी का निधन हो गया I इसके बाद वे ज्ञान की तलाश में उत्तर भारत की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े । उन्होंने 32 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरंभ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों के दर्शन किए। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात् शंकरदेव ने 54 वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा भागवत ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ “महानाट” के अभिनय का आयोजन किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेदविरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कुछ प्रश्न पूछकर उनके उत्तर से संतुष्ट होने के उपरांत राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित कर दिया । इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की । 97 वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरंभ की। उन्होंने कबीर के मठ के दर्शन किए तथा उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की । इस यात्रा के पश्चात् वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया I शंकरदेव के वैष्णव सम्प्रदाय का मत एकशरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है। अपनी तीर्थ यात्रा में वे उत्तर भारत के प्रसिद्ध संत कबीर के साथ-साथ कई ऋषियों और महापुरुषों से मिले । तीर्थयात्रा से लौटने के बाद श्रीमंत शंकरदेव माजुली द्वीप में बस गए और वैष्णव धर्म का प्रचार करना शुरू कर दिया। वे कर्मकांड, अर्थहीन संस्कार और अनुष्ठानों के खिलाफ थे तथा लोगों को धर्म के सरल मार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करते थे I उनका मानना था कि सभी मनुष्यों में एक ही सर्वोच्च आत्मा विद्यमान है । उन्होंने सभी प्रकार के वर्ग भेद और मानव निर्मित सामाजिक बाधाओं का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने संगीत और भजन गायन के महत्व को प्रमुखता से रेखांकित किया I अलीपुखुरी असम के लोगों के लिए एक पुण्य भूमि है I बोरदोवा सत्र का असम में विशेष महत्व है I यहाँ एक कीर्तन घर है जिसके निकट पत्थर का एक टुकड़ा रखा है I इस पत्थर को पादशिला के नाम से जानते हैं I ऐसा विश्वास है कि इस पर श्रीमंत शंकरदेव के पद चिह्न अंकित हैं I यहाँ पर होली का त्योहार और वैष्णव संतों की जयंती व पुण्य तिथि धूमधाम से आयोजित की जाती है I श्रीमंत शंकरदेव बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे I वे असम के महान समाज सुधारक, नाटककार, अभिनेता, संगीत मर्मज्ञ और लेखक थे । शंकरदेव गृहस्थ परंपरा के संत थे । उन्होंने विवाह किया और गृहस्थ आश्रम में रहते हुए संत के रूप में अपना जीवन निर्वाह किया । अपने शिष्यों के लिए भी उन्होंने ऐसा ही संदेश दिया । इसलिए शंकरदेव के अनुयायी विवाह करते हैं, संतान उत्पन्न करते हैं और संत जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। उनके अनुयायी रासलीला, नृत्य संगीत और नाटक भी करते हैं। माजुली द्वीप से शंकरदेव का अन्योन्याश्रय संबंध है। सन् 1568 ई. में उनका देहान्त हो गया। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – हरिश्चंद्र उपाख्यान, भक्तिप्रदीप, रुक्मिणीहरण, कीर्तनघोषा, अजामिलोपाख्यान, अमृतमंथन, आदिदशम, कुरुक्षेत्र, गुणमाला, भक्तिरत्नाक, विप्रपत्नीप्रसाद, कालिदमनयात्रा, केलिगोपाल, रुक्मिणीहरण नाटक, पारिजात हरण, रामविजय आदि । शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एकशरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा को महत्व नहीं दिया गया है। इसे केवलीया या महापुरुषीया धर्म भी कहते हैं । उन्होंने मूर्तिपूजा के बदले भगवान के नाम को अधिक महत्व दिया है । इसलिए नामघरों में मूर्तिपूजा नहीं होती। श्रीमंत शंकरदेव ने असम के लोगों को अशिक्षा और अंधविश्वास से दूर रहने की शिक्षा दी और ज्ञान का सच्चा स्वरूप दिखाया । आज भी असम के नामघरों में मणिकूट (गुरू आसन) पर शंकरदेव रचित कीर्तन घोषा श्रीमद्भागवत की प्रति रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है। यह पद्धति सिख मत के समान है जहां गुरुग्रंथ साहिब को श्रेष्ठ माना जाता है। शंकरदेव ने भाओना अर्थात पौराणिक नाटकों के अभिनय और नृत्य-संगीत के द्वारा धर्म प्रचार किया । इसलिए उनके अनुयायी उनके पथ पर चलते हुए भाव नृत्य और धार्मिक नाटक करते हैं।