असमंजस
नीलिमा बड़े असमंजस में थी, कि वह पहले नीले-नीले जल की उफनती लहरों से जूझे या नीले-नीले अंबर से नोचने को तत्पर गिद्धों-कौवों से. बिन मां की बच्ची नीलिमा को पल-पल चाची की झिड़कियां जल की उफनती लहरों के समान और जन्मते ही मां को खाकर उन पर बोझ बनने के ताने भवसागर के थपेड़ों की तरह लगते थे. चाची के बार-बार बाजार से कुछ-कुछ लाने के लिए निकलने के लिए मजबूर उस बच्ची को बेहूदगी से घूरती हुई समाज की नज़रें नोचने को तत्पर गिद्धों-कौवों के समान लगतीं. वह जाए तो जाए कहां? अपनी समूची शक्तियों को समन्वित कर वह दोनों से ही मुकाबला करने में जुटी हुई थी, तभी उसकी स्मृति में एक किस्से ने हलचल मचाई.
यह किस्सा एक ऐसी अपाहिज छात्रा का था, जिसने अपने कक्षा में शिक्षक से ओलिंपिक खेलों में अपना रेकॉर्ड बनाने की इच्छा जाहिर की. शिक्षक ने पूरी कक्षा के समक्ष उस पर व्यग्ंय कसा, जिसे सुनकर कक्षा के सभी बच्चे खिलखिला उठे. अगले दिन कक्षा में मास्टर जी आए तो बड़े धैर्य के साथ दृढ़ और संयमित स्वरों में उस लड़की ने मास्टर जी और कक्षा के सामने हवा में उड़कर दिखाने का संकल्प किया. सचमुच बिना प्रशिक्षण के ही वह एक अच्छी धावक बन गई और 1960 के ओलिंपिक में उस लड़की ने पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लिया और तीन पदक जीते.
छात्रा के धैर्य, संयम, आत्मविश्वास और लगन ने नीलिमा के असमंजस को असमंजस में डाल दिया था. उसे अपनी मंज़िल मिल गई थी. अब न तो उसे नीले-नीले जल की उफनती लहरों से जूझने में अतिरिक्त प्रयास करना पड़ रहा था, न अंबर से नोचने को तत्पर गिद्धों-कौवों को उड़ाने में ही कोई मुश्किल आ रही थी.
मन में लगन और विश्वास हो, सोच सकारात्मक हो तो सब कुछ संभव है और जीवन असमंजस से मुक्त होकर नीलिमा की तरह आजादी से जी सकता है.