लाइट कैमरा ऐक्शन……
फिल्में हमारे देश में अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। फिल्मों ने हमारे विशाल देश की सांस्कृतिक विविधता को बहुत सुंदर तरीके से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। फिल्म के पात्रों ने अपनी कहानी के ज़रिए हमारे मन के भावों को छुआ है। हमें कभी हंसाया है तो कभी रुलाया है। दशकों से समाज का आईना रही हैं फिल्में।
भारत में फिल्म निर्माण एक बड़ा उद्योग है। इस उद्योग से बहुत सारे लोग जुड़े हैं। फिल्म जगत बहुत बड़ा है। इसमें हिंदी, तमिल, तेलगू, मलयालम, बंगाली तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं एवं बोलियों की फिल्मों का निर्माण किया जाता है। कई कलाकार अपना हुनर दिखाने की ख़्वाहिश लिए हर साल फिल्म जगत की ओर खिंचे चले आते हैं।
आज हमारे देश के फिल्म उद्योग की पूरी दुनिया में एक विशिष्ट पहचान हैं। विश्व के कई देशों में हमारी फिल्में देखी व सराही जाती हैं। आपने कभी इस प्रश्न पर विचार किया है कि इस विशाल उद्योग की नींव रखने वाला कौन था। वह कौन था जिसने पहली बार भारत में फिल्म बनाने का विचार किया। फिल्में बनाने की प्रेरणा कहाँ से मिली होगी। इस आरंभ में क्या क्या कठिनाइयां आई होंगी। तो आइए इस लेख के माध्यम से जानते हैं भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के के बारे में। किस प्रकार उन्होंने भारतीय सिनेमा को पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरीश्चंद्र’ दी।
भारतीय फिल्म जगत के संस्थापक का नाम था धुंदीराज गोविंद फाल्के। जिन्हें हम सब दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते हैं। इनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 20-25 किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में हुआ था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। वह मुम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत थे।
बचपन से ही फाल्के का कला की तरफ रुझान था। अपनी सृजनशील प्रवृत्ति के कारण इन्होंने सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से प्रशिक्षण प्राप्त किया। वह रंगमंच पर अभिनय करते थे। शौकिया तौर पर जादूगरी भी सीखी। फोटोग्राफी का कोर्स करने के बाद फाल्के ने इसी क्षेत्र में काम करना शुरू किया। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में कुछ प्रयोग किये थे। लेकिन अपनी पहली पत्नी की मृत्यु हो जाने पर फाल्के ने यह काम छोड़ दिया। कुछ दिनों तक उन्होंने भारतीय पुरातत्व विभाग में ड्राफ्टमैन का काम भी किया।
फाल्के ने प्रिंटिंग के व्यवसाय में भी भाग्य आज़माया। प्रिंटिंग के काम के ज़रिए ही वह महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के संपर्क में आए। इस काम की सही तकनीकि जानने एवं मशीनों को खरीदने के लिए वह जर्मनी तक गए। लेकिन जब उनके पार्टनर ने अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ा। 40 साल की उम्र में यह धक्का लगने से उनका मन व्यवसाय से उचट गया।
उन्हीं दिनों में एक बार फाल्के को एक विदेशी मूक चलचित्र ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखने का अवसर मिला। यह फिल्म प्रभु ईसा मसीह के जीवन पर आधारित थी। फिल्म ने फाल्के को बहुत प्रभावित किया। उनके मन में विचार आया कि भारत में राम, कृष्ण जैसे महान पौराणिक चरित्र हैं। रामायण एवं महाभारत जैसे ग्रंथों में अनेक कहानियां हैं। इन पर भी ऐसी फीचर फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिन चरित्रों के बारे में भारतीय अब तक केवल पढ़ते या सुनते आ रहे थे उन्हें पर्दे पर सजीव देखना उनके लिए रोमांचकारी अनुभव होगा। इसी पल उनके दिल में फिल्म निर्माण का बीज रोपित हुआ।
दृढ़ इच्छा शक्ति के स्वामी फाल्के ने ठान लिया कि चाहें जितनी कठिनाइयां आएं वह फिल्म बनाने के अपने सपने को पूरा करके रहेंगे। अतः उन्होंने इस संबंध में तैयारी करनी आरंभ कर दी। फिल्म निर्माण के बारे मे अधिक जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने इस विषय पर उपलब्ध कई पत्र पत्रिकाओं का अध्ययन किया। वह रात दिन केवल फिल्म निर्माण की तकनीक पर शोध करते रहते थे। इसके कारण उन्हें आराम का कम समय मिल पाया। इसका फाल्के के शरीर पर प्रतिकूल प्रभ़ाव पड़ा। वह बीमार पड़ गए। लेकिन बीमारी के बावजूद भी उनका जुनून कम नहीं हुआ।
उस समय तक फिल्मों का निर्माण केवल विदेशों में होता था। भारत में फिल्म बनाने के लिए आवश्यक तकनीक व उपकरण उपलब्ध नहीं थे। फाल्के ने इस चुनौती को भी स्वीकार किया। धन एकत्र कर वह फिल्म निर्माण की तकनीक सीखने व उपकरण खरीदने लंदन चले गए। अप्रैल 1912 में भारत लौटकर फाल्के फिल्म निर्माण के लिए पूरी तरह जुट गए। मुंबई के दादर इलाके में स्टूडियो बनाकर उन्होंने फाल्के फिल्म नाम से अपनी कंपनी बनाई। फिल्म के लिए फाल्के ने सत्य के लिए सब कुछ छोड़ देने के लिए प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र राजा हरीशचंद्र को चुना।
किंतु समस्याएं अभी समाप्त नहीं हुई थीं। पहली समस्या धन की थी। इसके लिए इनकी पत्नी सरस्वती बाई ने अपने गहने गिरवी रख दिए। धन की व्यवस्था हो जाने पर अगले कुछ महीने पटकथा लेखन, कलाकारों के चयन आदि पर काम करने में लगाए। राजा हरीशचंद्र की भूमिका में उन्होंने खुद को रखा। हरीशचंद्र के पुत्र रोहिताश्व के लिए अपने बेटे को कास्ट किया। अन्य कलाकारों का चुनाव करने के लिए अखबार में विज्ञापन दिया।
अब सबसे अहम चरित्र के लिए कलाकार खोजना था। राजा हरीश्चंद्र’ की पत्नी तारा की भूमिका के लिए नायिका की तलाश सबसे कठिन काम था। उन दिनों स्त्रियां अभिनय नहीं करती थीं। स्त्री चरित्र भी पुरुष ही निभाते थे। लेकिन फाल्के की इच्छा इस व्यवस्था को तोड़ने की थी। वह चाहते थे कि तारामती की भूमिका कोई स्त्री ही करे। इसके लिए उन्होंने कई महिलाओं से बात की, इश्तहार भी बंटवाए लेकिन इन सबका कोई फ़ायदा नहीं मिला। तारामती के रोल के लिए फाल्के तवायफों के पास भी गए। उनसे नायिका बनने का आग्रह किया। लेकिन यहाँ भी निराशा ही हाथ लगी।
अंततः फाल्के ने फैसला किया कि वह तारामती की भूमिका पुरुष से ही करवाऐंगे। अब वह ऐसे पुरुष की खोज में जुट गए जो तारामती के रोल के लिए सही हो। उनकी तलाश एक ईरानी रेस्त्रां में जाकर समाप्त हुई। वहाँ उन्हें अन्ना सांलुके नाम का एक रसोइयां मिला। फाल्के ने उस रसोइये से तारामती के रोल के लिए बात की। बहुत समझाने के बाद वह काम करने के लिए तैयार हो गया।
सभी पात्रों के लिए कलाकारों का चयन हो जाने के बाद रिहर्सल का दौर चला। उसके बाद शूटिंग आरंभ हुई। दादर के स्टूडियो में सेट बनाया गया। सारी शूटिंग दिन की रोशनी में की जाती थी। क्योंकि रात में फाल्के एक्सपोज्ड फुटेज को डेवलप और प्रिंट करते थे। उनकी पत्नी सरस्वतीबाई भी उनकी सहायता करती थीं।
आखीरकार 7 माह 21 दिनों की मेहनत रंग लाई। करीब 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में भारत की पहली मूक फीचर फिल्म रिलीज़ की गई। विदेशी फिल्में देखने वाले दर्शकों ने इस फिल्म की अनदेखी की। यही नहीं प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके तनिक भी हताश नहीं हुए। उन्होंने तो यह फिल्म भारत के जनमानस के लिए बनाई थी। अतः यह फिल्म जनता के बीच जबरदस्त रूप से सराही गई।
राजा हरीश्चंद्र के निर्माण का श्रेय फाल्के के साथ साथ उनकी पत्नी सरस्वतीबाई को भी जाता है। शूटिंग में शामिल लोगों के भोजन की व्यवस्था से लेकर फिल्म की शूटिंग के दौरान वह एक सहायक की भूमिका बखूबी निभाती थीं। फिल्म को एडिट करने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।
इसके पश्चात उसी साल मोहिनी भस्मासुर आई। फाल्के ने अपने जीवनकाल में सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921) और भक्त गोरा (1923) लगभग 100 फिल्में बनाईं।
फिल्मों में आवाज़ आ जाने के बाद फिल्म तकनीकि में कई बदलाव आए। फिल्मों की रूपरेखा भी बदल गई थी। फिल्म निर्माण एक लाभदायी उद्योग बन गया। अतः कई व्यवसायियों ने इस तरफ रुख किया। परिणाम स्वरूप फिल्मों में व्यवसायिक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाता था। कलात्मक पक्ष कमज़ोर होने लगा। इस बदलाव से फाल्के पटरी नहीं बिठा पाए। कुछ दिनों के लिए वह बनारस चले गए। उसके बाद जब लौटे तो उन्होंने अपनी पहली बोलती फिल्म गंगावतरण बनाई। यही उनकी अंतिम फिल्म भी थी।
अपने अंतिम वर्षों में फाल्के फिल्म जगत से दूर एकाकी जीवन जी रहे थे। किंतु उनके बेटे प्रभाकर ने समझाया कि बदलते समय को ध्यान में रख कर एक नए किस्म की फिल्म बनाई जाए। उस समय ब्रटिशराज था। फिल्में बनाने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। फाल्के ने लाइसेंस के लिए आवेदन किया। लेकिन उन्हें फिल्म बनाने की इजाज़त नहीं मिली। इसी सदमे में ठीक दो दिन बाद 16 फरवरी 1944 में उनकी मृत्यु हो गई।
1969 में फाल्के के सम्मान में दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों की घोषणा की गई। यह फिल्म जगत का सबसे सम्मानित पुरस्कार है जो किसी कलाकार द्वारा फिल्मों में दिए गए योगदान के लिए दिया जाता है। यह पुरस्कार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा स्थापित की गई संस्था डायरेक्टोरेट ऑफ फिल्म फेस्टिवल द्वारा हर साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में दिया जाता हैं। इस पुरस्कार में स्वर्ण कमल के अलावा एक शॉल और 10 लाख रुपये की धनराशि दी जाती है।
फाल्के एक स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने अपने खून पसीने से सींच कर अपने सपने को साकार किया। उन्होंने जो चित्रपट बनाया आज वह बहुत विशाल और रंगीन हो गया है।