आखिरी कहानी (भाग 2/5)
अध्याय 2– रजनी जी
मालती का नाम जैसे दहकते लोहे की मुहर से सीने पर दाग देने जैसा था। उसका ख्याल भी आता था तो निरंजन झुलस जाता था। कुछ इस कदर कि आस-पास का कुछ भी, न दिखाई पड़ता था, न सुनाई। फिर कई दिन के इलाज के बाद भी पसलियों में दर्द रहता था जो कभी-कभी बुरी तरह से टीसें मारता था। मगर वक्त की रेत पर कुछ नहीं ठहरता। जो दर्द नहीं मिटते, उनके साथ भी इंसान जीना सीख जाता है।
जब निरंजन ने भी इस दर्द के साथ जीना सीख लिया तो उसे अपनी कलम की सुध आई जो कई दिनों से मेज की दराज़ में पड़ी थी। अब तो उसके पास लिखने के लिए भी बहुत कुछ था, बहुत कुछ अपना भी। अबकी जो उसने लिखना शुरू किया तो भय, दर्द, आँसू, हँसी, सब कलम से बह निकले और कहानियों के रूप में ढल गए। और उस आनेवाली उत्कृष्ट कहानी संग्रह का हिस्सा बने जिससे वह आनेवाले कथामहोत्सव में उतरने वाला है।
उसने उन कहानियों को नाम दिया ‘तलछट की मछलियाँ’। किसी ऊपर से शांत दिखने वाले तालाब के तलछट में मछलियाँ क्या-क्या करती हैं, कोई नहीं जानता। तालाब के उस गंदले पानी में जहाँ सबसे ज़्यादा अँधेरा होता है, ये मछलियाँ, एक साथ रहते-रहते कभी-कभी एक-दूसरे को मारकर खा भी जाती हैं। जैसे मालती की माँ उसे खा रही थी या फिर, कभी भविष्य में मालती रसीलीबाई को खा जाए। पता नहीं?
लेकिन अब बस! वह एक ही प्रकार की कहानियाँ नहीं लिख सकता। वह अपने ऊपर एक ही तबके का हिमायतदार होने का ठप्पा भी नहीं लगने देगा। उसकी हर कहानी एक-दूसरे से जुदा होनी चाहिए। उसने अपने आप से यही तो वायदा किया था न?
हाँ हर कहानी सबसे अलहदा होनी ही चाहिए। ऐसा ही तो कहा था मैंने उस पुरस्कार समारोह में, जहाँ रजनी जी को सर्वश्रेष्ठ कथाकार घोषित किया गया था। मैं रजनी जी क्यों कह रहा हूँ? उस पागल औरत को भला पहला स्थान कैसे मिला और मुझे दूसरा? उसकी कहीं आयोजकों में जान-पहचान तो नहीं? मगर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ भी तो सामने थीं। ये पाठक भी बड़े पागल हैं। कोई माँ-बहन की कहानी सुना दी तो रोने लगते हैं। किसी कहानी में बुढ़िया के दाँत छुपा दिए तो टेसू बहाने लगते हैं। किसी प्रेमिका का प्रेमी छोड़ जाए तो गंगा-जमुना बहा देते हैं। अरे गोली मारो न ऐसे प्रेमी को। मैंने नहीं मारी क्या? उफ। ऐसी कहानी भी कोई कहानी होती है। असली कहानियाँ क्या होती हैं, समझाना पड़ेगा पाठकों को। इसीलिए तो यह संकलन निकाल रहा हूँ।
सोचते-सोचते निरंजन का सिर चारपाई के एक ओर पाए से नीचे लटक गया और सिर उलटा रख वो खिड़की से बाहर शून्य में देखता हुआ उस पुरस्कार समारोह में पहुँच गया।
पाँच साल में एक बार यह समारोह होता है – कथामहोत्सव। हर कथाकार का सपना है इस महोत्सव में सम्मानित होना। किशोरावस्था से ही निरंजन का सपना था यह महोत्सव याने जब से लिखना शुरू किया तब से सपना देखना भी। और देखो न! ठीक मछली की आँख भेदने की तरह उस साल के कथामहोत्सव के लिए अपना कथा-संग्रह भी निकाल पाया था। कितनी खुशी-खुशी गया था प्रतिस्पर्धा के लिए अपना कथा-संग्रह देने। उसने आजकल के सभी लेखकों को पढ़ा है। किसी में दम ही नहीं कि उसके जैसी रोमांचक कहानियाँ लिख सके।
उसकी कहानियाँ पाठक को अंत तक बाँधकर रखने में सक्षम थीं और कहानी पढ़ते समय पाठक ऐसी यात्रा पर निकलता था जहाँ कदम-कदम पर कुछ नया टकरा जाता था और पाठक एकदम आश्चर्यचकित रह जाता था। कई तो प्रत्याशा में नाखून तक चबा डालें। ऐसे में भला कोई उसका मुकाबला क्या करेगा। वह भी आजकल के रोंदू-भोंदू लेखक जिनकी कहानियाँ अखबार में किसी घटना की रिपोर्टिंग से ज़्यादा कुछ नहीं होती थीं। वे किसी फिल्म या धारावाहिक की रफ़ स्क्रिप्ट जैसी लगती हैं। साहित्य तो उन्हें छू भी नहीं जाता। ‘उत्सव’ के दफ्तर के बाहर अपनी आज की आख़िरी सिगरेट फूँकते हुए वह यही सब सोच रहा था।
‘उत्सव’ वही संस्था है जो हर पाँच साल में यह स्पर्धा आयोजित करती थी। प्रत्येक पाँच साल बाद लेखकों से उनकी रोचक कहानियों का प्रकाशित संग्रह मँगाती थी और फिर देशभर के पाठकों के सामने रखती थी। पाठकों से प्राप्त प्रतिक्रिया के आधार पर सालभर बाद एक भव्य समारोह में परिणाम घोषित करती थी।
पचास साल पहले जब इस संस्था ने अपना पहला आयोजन किया था तो इस आयोजन में इतनी व्यापकता नहीं थी। मगर आज सूचना प्रसारण के इस युग में इंटरनेट, टी.वी., रेडियो ने इसे इतना विख्यात बना दिया कि पूरे देश में हर पाँचवे साल इसकी एक लहर सी उठती थी।
सिगरेट का आख़िरी कश लेकर निरंजन ने वह सिगरेट फेंक दी और उसे बूट से मसलते हुए उसने एक लंबी श्वास ऐसे छोड़ी जैसे अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ा हो। वह इस विश्वास के साथ घर लौट आया कि सर्वश्रेष्ठ कथाकार का ताज तो इस बार उसके ही सर-माथे रखा जाएगा। पूरे वर्ष वह फूला-फूला घूमता रहा जैसे वह पहले से ही सर्वश्रेष्ठ कथाकार घोषित किया जा चुका है।
उसने सारे वर्ष कुछ नहीं लिखा। जिस वजह से लिखा करता था वह तो सार्थक-सिद्ध होता नज़र आ रहा था। उल्टा लिखने की बजाय उसने दूसरों की लेखनी पर छींटाकशी शुरू कर दी। कहे, बिना कहे ही वह सब कहानियों पर मुँह खोल टिप्पणियाँ देने लगा। जगह-जगह पत्रिकाओं और इंटरनेट पर छपी कहानियाँ पढ़कर उनकी चीर-फाड़ करने में मशगूल हो गया और अपने आप को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का परनाना समझने लगा।
कुँए की मुंडेर तक पहुँचना और बात है और वहाँ से प्यास का बुझना और बात। निरंजन के साथ भी यही हुआ। स्पर्धा में भाग लेकर वह समझ बैठा था कि वह जीत गया। मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। अपने आप को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने पर ज़रूरी नहीं कि संसार भी आपको सर्वश्रेष्ठ माने। और यदि अपने ही मानदंडों पर आप सर्वश्रेष्ठ हैं ही तो दुनिया की फिकर क्यों करना; दुनिया आपको सर्वश्रेष्ठ माने, न माने। मगर निरंजन को फ़र्क पड़ता था। उसे दुनिया से भी अपनेआप को सर्वश्रेष्ठ घोषित करवाना ही था।
तो वह दिन भी आ ही गया जिसके लिए जाने कितने लोग निरंजन की तरह सालभर से करवटें बदल-बदलकर रातें बिता रहे थे। निरंजन की मेज के ऊपर टँगे कैलेंडर में यह दिन सुर्ख लाल रंग से रंगा हुआ था। पिछली सारी रात निरंजन का मन बस मंच पर पुरस्कृत होने के दृश्य के इर्द-गिर्द टहलता रहा। यहाँ तक कि मन ही मन उसने अपना विजयी भाषण तैयार कर कई बार दुहरा दिया।
रंगीन पर्दों से सजे मंच पर गणमान्य अतिथियों के लिए कुर्सी-टेबल लगे हुए थे। हॉल अभी लगभग खाली ही था, जो थे वे शायद आयोजक टीम के सदस्य ही थे। निरंजन को खुद पर ग्लानि हुई कि इतना क्या उतावलापन कि मुँह उठाकर झाडू मारने के समय ही हॉल में चला आया। इसलिए वह थोड़ी देर के लिए घूमने निकल गया।
घूमकर आया तो अभी भी हॉल खाली का खाली ही था। उसे खीझ हो रही थी कि घड़ी के काँटे हिल क्यों नहीं रहे। वह अभी भी समय से बहुत पहले पहुँचा हुआ था। उसने सीटों के आगे जाकर हॉल में देखा तो उसके जैसे कुछ और उतावले लेखक भी पहुँचे हुए थे जो अपनी-अपनी ठुड्डी ऊँची किए सीटों पर विराजमान थे। सवाल ही नहीं कि कोई किसी से बोल जाए।
निरंजन ने भी बीच की एक कुर्सी भर दी।
कुछ ही देर में हॉल ठसाठस भर गया। मगर निरंजन के लिए वह ‘कुछ ही देर’ भी सदियों लंबा जान पड़ा। मंच की एक-एक औपचारिकता उसके सिर में हथौड़े का वार कर रही थी। और वह खीज रहा था कि इन फालतू की औपचारिकताओं में कितना समय बर्बाद किया जा रहा है और उसे उसके सपने से दूर रखा जा रहा है। अंतत: मंच संचालन कर रही मृदुकंठी महिला ने उद्घोषणा की कि परंपरा के अनुसार प्रथम पाँच विजेताओं को मंच पर रखी पाँच खाली कुर्सियों पर बुलाया जाएगा मगर बुलाने का यह क्रम उनके जीतने का क्रम न समझा जाए।
ऐसा ही हुआ निरंजन सहित चार अन्य लेखकों को मंचासीन किया गया। यह तो होना ही था। इसमें निरंजन को कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
फिर शुरू हुआ पुरस्कार वितरण का दौर जिसमें उल्टे क्रम में विजेताओं को पुष्पगुच्छ, शॉल और फिर प्रशस्ति प्रमाण-पत्र प्रदान किए गए। और वह शलाका? उसके बारे में तो सोचकर निरंजन मन ही मन मुस्कुराया कि वह शलाका तो उसकी है और उसे ही दी जाएगी क्योंकि शलाका पर सर्वश्रेष्ठ कथाकार का अधिकार होता है और यह उसे ही मिलती है जो प्रथम स्थान प्राप्त करता है।
पाँचवे विजेता का नाम घोषित कर पुरस्कृत किया गया, फिर चौथे और फिर तीसरे। निरंजन का नाम नहीं था वह जानता था कि हो ही नहीं सकता। उसका तो केवल प्रथम नाम हो सकता है। इसलिए मुदित मन तीनों के धन्यवाद भाषण भी सुने। पुरस्कृत होने के बाद उन्हें बोलने के लिए माइक दे दी जाती थी और अपनी-अपनी बारी आने पर सभी अपने पुरस्कार के लिए आकाश-पाताल तक को धन्यवाद ज्ञापित करने लग जाते थे।
निरंजन सुनता और मन ही मन मुस्कुराता कि इनके लिए यही बहुत है। वरना जिस तरह की लेखनी इनकी है, वह बहुत खूब जानता है। इनकी लेखनी में तो इतना दम भी नहीं कि कहीं आस-पास भी उसके भटक सके। मगर अफसोस की इन नौसिखियों के साथ मंच साझा करना पड़ रहा है।
निरंजन अभी मन ही मन उन सब की लिखी कहानियों की धज्जियाँ उधेड़ रहा था कि द्वितीय स्थान के कथाकार का नाम घोषित हुआ। निरंजन को काटो तो खून नहीं। ऐसा लगा कि धमनियों से साँसे और नसों से खून गायब। कुछ पलों के लिए तो निरंजन एकदम ही शून्य हो गया।
फिर जब होश सँभाला तो देखा कि सबका ध्यान, सबकी नज़रें तो रजनी जी पर स्थिर थीं। क्यों? क्योंकि पाँचवी कथाकार तो वही थीं और उनका ही नाम बचा था। इसका मतलब लोगों की तालियों की ये दुगुनी गड़गड़ाहट उनके लिए थी। अब तक लगभग सुन्न सा हो चुका निरंजन, अब ईर्ष्या की धधकती ज्वाला में जल उठा और अपनी कुर्सी से ऐसा उठा कि कुर्सी पीछे लुढ़क गई। लोगों को लगा कि बेचारा हड़बड़ाहट में है।
इस समय तक निरंजन अपना पूरा होश गँवा चुका था जैसे मंदिरों में वे औरतें गँवा चुकीं होती हैं जिनपर माता चढ़ जाती हैं। उसने अपना पुरस्कार और पुष्प गुच्छ लिया। फिर ओढ़ाए गए शॉल को भी उतारकर मोड़-माड़ लिया और सब एक ही हाथ में पकड़े माइक की ओर बढ़ गया। माइक के सामने पहुँचकर सारा सामान माइक के आगे पोडियम पर पटक दिया और दायाँ हाथ कमर पर रख, बाएं हाथ से माइक पकड़, माइक पर झुक गया।
फिर जो वह शुरु हुआ तो हक्के-बक्के से लोग केवल उसको सुनते रहे। न कोई अभिवादन, न कोई कृतज्ञता का प्रकट करना, बस सीधे वार पर वार। उसकी आक्रोश भरी वाणी सुनकर लोगों की कनपटियाँ गरम हो गईं। सबसे ज़्यादा तो रजनी जी की। अप्रत्यक्ष रूप से सारे कटाक्ष उन्हीं पर जो किए जा रहे थे।
“मैं कभी समझ नहीं पाता कि लोग आख़िर लिखते क्या हैं? कहीं किसी कहानी में हिरोइन को शादी के जोड़े में मार दिया तो कहीं किसी को अकारण ही अपनी प्रेमिका से जुदा कर दिया। ऐसा होता है क्या? इतने घिसे-पिटे विषय पर आज भी कोई कहानी लिखता है क्या भला?”
रजनी जी ने भौहें टेढ़ी कर के निरंजन को देखा। यह उन पर प्रत्यक्ष कटाक्ष था। क्योंकि यह उन्हीं की लिखी कहानियों की ओर इशारा था। पर निरंजन इतने पर भी नहीं ठहरा। वह तब तक बोलता रहा जब तक कि गुस्से से रजनी जी के कान से धुँआ नहीं निकलने लगा।
“न शैली का होश है, न विषय का। कहीं से कहानी शुरूकर, कहीं और ही पहुँचा दी। जो जी चाहा लिख दिया। साहित्य को तो गोबर का उपला बना छोड़ा है। यहाँ तक भी समझ में आता है। मगर न वर्तनी है, न वाक्य संरचना का ज्ञान और तो और कहीं कोई लॉजिक ही नहीं किसी कहानी में। भाई हिंदी आती नहीं तो हिंदी के लेखक कैसे खुद को घोषित करने पर तुले हो?”
हॉल में सन्नाटा छाया था। अब तक जो सब निगाहें रजनी जी पर केंद्रित थीं, अब निरंजन पर हो गईं, और सारे दर्शक तथा प्रायोजक समिति के सदस्य उसे फटी आँखों से देख रहे थे। प्रायोजकों को लगा कि बस किसी तरह निरंजन को उठाकर बाहर फेंक सकते ताकि कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हो सके।
“खैर छोड़ों। लिखने वालों को मैं दोष नहीं देता। कुछ लोगों को बेतुका लिखने का शौक़ चढ़ा है तो भई शौक़ फरमाएँ और अपना छपास रोग उल्टी-सीधी कहानियाँ छाप-छापकर मिटाएँ।“
ऐसा कहते हुए निरंजन ने एक टेढ़ी निगाह रजनी जी पर फेंकी और फिर दर्शकों को संबोधित करते हुए उन पर ही पिल पड़ा और दाएँ हाथ को हवा में उठाकर बंद उंगलियों को घुमाकर खोलते हुए अपनी जिह्वा का अस्त्र प्रक्षेपित किया।
“मुझे आश्चर्य तो उन पाठकों पर होता है जो चाव लेकर इन सड़ियल कहानियों को पढ़ते हैं। क्या हो गया है आज के पाठक को? क्यों उनमें आदर्श साहित्य की समझ का लोप हो गया है। भला इन फिल्मीं कहानियों पर कैसे टेसू बहा-बहाकर वोट देने लगते हैं। अपना दिमाग़ क्या अलमारी में रखकर कहानी पढ़ते हैं। उन्हें बिना लॉजिक की कहानियाँ समझ कैसे आती हैं? कोई मुझे भी ये लॉजिक समझाए यार। और सबसे बड़ी बात। क्या कहानी पढ़ते हुए उन्हें भाषा की अशुद्धियाँ बिल्कुल नहीं खटकती, क्या उनका प्रवाह बिल्कुल नहीं रुकता? हद है यार।“
अब तक पूरे हॉल में फुसफुसाहट शुरू हो गई थी। सब चाहते थे कि निरंजन को वहाँ से हटा दिया जाए। निरंजन ने भी दर्शकों में फैले इस रोष को भाँप लिया था।
“मुझे पता है आपको मेरी बातें अच्छी नहीं लग रहीं हैं। कड़वी बातें अच्छी नहीं लगती। चाहें वो सच्ची ही क्यों न हों। मगर मैं इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि मैं साहित्य के इस विघटन को बर्दाश्त नहीं करूँगा। मेरा अगला संकलन पढ़िएगा और जानिएगा कि कहानी क्या होती है। बहुत ज़रूरी है कि पाठकों को यह बताया जाए कि साहित्य को शिल्प, अर्थ आदि के दृष्टिकोण से कैसे देखा जाएगा। फिर आप खुद ही देखिएगा कि अगले महोत्सव में इस शलाका का असली हक़दार कौन है? मैं यह स्पष्ट करके ही दम लूँगा। देखिएगा।“
निरंजन ने हाथ जोड़ लिए और माइक छोड़कर अपनी ठीक की हुई सीट पर वापस बैठ गया। लोगों ने और तो और आयोजकों ने भी चैन की साँस ली। मगर अब तक महोत्सव का सारा रंग उड़ चुका था। न तो पुरस्कार देने वालों को, न पुरस्कार लेने वाली को और न ही दर्शकों को कोई मज़ा आ रहा था। बहुत सपाट और फीके चेहरे से रजनी जी ने अपनी शलाका प्राप्त की। जबकि निरंजन कुछ भी नहीं देख रहा था। वह अपनी जगह पर बुत बना जाने शून्य में क्या निहार रहा था।
रजनी जी ने जब अपना भाषण शुरू किया तो निरंजन ने अपने कान खड़े कर लिए कि कुछ न कुछ तो प्रतिक्रिया स्वरूप वह सुनाएँगी ज़रूर। मगर रजनी जी ने बड़े ही संयत ढंग से अपना भाषण धन्यवाद ज्ञापनों से शुरू किया और आकाश-पाताल तक को धन्यवाद देने के बाद अपनी प्रसन्नता प्रकट की। अब तक निरंजन के खड़े कान प्रतीक्षा में थक चुके थे इसलिए अब प्रतीक्षा बंद कर, वे अपने मन की ज्वलंत धुन में खोए हुए थे।
परंतु ज़्यादा देर नहीं। अपने लंबे-चौड़े भाषण के अंत में रजनी जी ने अपना प्रतिशोध ले ही लिया।
“….आप लोगों ने मुझे इतना सम्मान दिया, इतने वोट दिए और इस ऊँचे स्थान पर बिठा दिया। परंतु कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनको यह रास नहीं आया। उनसे सबसे पहला सवाल तो मैं और मेरे साथ-साथ दर्शक भी यह पूछ सकते हैं कि – तुम? लिखते हो? हमें तो पता ही नहीं था। पहली बार मुँह उठाकर किसी मंच पर चले आए लोग भी अपने को यहाँ तीसमारखाँ बता रहे हैं। वैसे तो मुझे ऐसे गाल बजाने वालों से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खिसियानी बिल्ली ही अक्सर खंभा नोचती है मगर, अगर कोई हमें अच्छे साहित्य का सबक सिखाने पर उतारू ही है तो हमें प्रतीक्षा रहेगी ऐसी महान कहानियों की….”
कहते-कहते रजनी जी हँस पड़ी और कुछ देर हँसी पर नियंत्रण स्थापित करने में ही बीता दिए जैसे कोई बहुत बड़ा जुमला कसने के बाद उनके अपने ही पेट में हँसी से बल पड़ रहे हों। मगर संयत होने के बाद स्थिर और खिंचे हुए चेहरे के साथ लगभग ऐलान सा कर दिया।
“ वैसे तो हर हारा हुआ इंसान दूसरे को ही अपनी असफलता का कारण मानता है। मगर कुछ लोग हैं इस सभा में जिनसे अपनी असफलता बर्दाश्त नहीं हो पा रही है। ऐसा नहीं है कि मुझे अपनी सफलता का कोई बहुत भारी घमंड हो गया है मगर, अगर अगले महोत्सव में यदि सच में मुझसे कोई यह शलाका जीत पाए तो….”
अब तक सबके कान खड़े हो चुके थे। निरंजन के भी। रजनी जी की मुठ्ठियाँ भींच चुकीं थीं और चेहरे की सारे नसें तनी हुई थीं।
“….तो कथा के संसार से संन्यास ले लूँगी। पुन: सभी का धन्यवाद।“
निरंजन इस चुनौती से उबल रहा था। माइक उसके पास होता तो वह बता देता कि वह ‘खिसियानी बिल्ली’ है तो दूसरे उसके हिस्से की रोटी छिनने वाले लंगूर हैं। मगर उसकी पारी तो खत्म हो चुकी थी। वह खिसियाता हुआ उठा और मंच छोड़कर चला गया। इससे पहले की रजनी जी अपनी कुर्सी पर बैठती, निरंजन की कुर्सी खाली हो चुकी थी।
उस दिन का यह सारा वाक्या याद करने में निरंजन को मुश्किल से आधा-पौना मिनट लगा होगा। चारपाई की एक ओर पाए से नीचे लटके अपने उलटे सिर से उसने खिड़की से बाहर देखना बंद किया और संयत होकर बिस्तर पर ही बैठ गया। दूर से ही उसे वह चमकदार चोरी का पेन दिखाई दिया उसे विपुल ने दिया था और जो टेबल पर पड़ा चमचमा रहा था। हल्की रोशनी में चमकते पेन को देख उसे फिर कुछ लिखने की उत्कंठा हुई।
वह कुर्सी टेबल लगाकर लिखने बैठा। कुछ सूझा नहीं क्या लिखे। मगर कलम जब पेपर से लगाया तो शब्द अपने आप झरते गए और एक खूबसूरत कविता लिख डाली। कविता जब पूरी हुई तो निरंजन ने माथा ठोंक लिया। भला कविता का वह क्या करेगा? उसने वह पन्ना फाड़ा और फेंकने को हुआ कि मन में आया कि क्यों इतनी अच्छी कविता बर्बाद करना और उसे उसने ड्राअर में डाल दिया।
रसीलीबाई के रस में डूबे कलम ने कुछ नशीली कहानियां तो गढ़ लीं मगर निरंजन नहीं चाहता था कि उसके कथा-संग्रह को पढ़ने वाले पाठक पर से कहानियों का नशा टूटे। इसलिए उसे और भी बेहतरीन कहानियों की तलाश थी। मगर इस समय कुछ न लिख पाने की खीझ में वह बाहर सड़क पर निकल गया।
अब तक वह संकलन लगभग पूरा कर चुका था। विपुल के साथ नशाखोरी से लेकर मालती की गलियों पर वह कहानियाँ लिख चुका था। सबसे बेहतरीन कहानियाँ तो औघड़ बाबा के अघोरियों पर निकल कर आईं थी। उसे अब तलाश थी तो उस आख़िरी कहानी की जो न केवल इस संकलन को संपूर्ण करती बल्कि पाठक पर अमिट छाप छोड़ जाती। उस आख़िरी कहानी की तलाश ने उसे बेचैन कर रखा था। वह कोई ऐसा विषय ढूँढ ही नहीं पा रहा था जो अनोखा और दिलचस्प हो सके।
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