गुड-गवर्नेंस वाली स्कीम
पहले राजा लोग आलरेडी ईश्वर के अंश होते थे, इसलिए इनका किया-धरा आटोमेटिक “राजधर्म” हो जाता था..! कारिंदों के साथ हाथी-घोड़े पर सवार राजा रिरियाती रियाया के बीच “राजधर्म” का प्रतीक था..! लेकिन आजकल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में “गुड-गवर्नेंस” का कोई क्लियर कांसेप्ट ही नहीं है। इसीलिए “गुड-गवर्नेंस” को समझाने के लिए पृथक से मंचीय-स्कीम चलानी पड़ती है। इस स्कीम के माध्यम से रियाया में गुड-गवर्नेंस की फीलिंग पैदा की जाती हैं..! इसी मंच से भीड़ जुटाकर अधिक से अधिक लोगों तक यही फीलिंग पहुँचायी जाती है। और फिर जुटी भीड़ के अनुपात में गुड-गवर्नेंस को मापा भी जाता है! कुल मिलाकर पेंचीदगियों से भरी यह स्कीम बहुत खर्चीली हो चली है।
आखिर गवर्नेंस अपने गुडवर्क नहीं बताएगी तो फिर कौन बताएगा..? इसी मंशा से, सरकार अपनी स्कीमों का गुडवर्क बताने के लिए मंचीय-स्कीम टाइप की स्कीम लाती है। जिसकी सफलता के लिए तमाम विभागीय कारिंदें अपना सब काम-धाम छोड़ समर्पण भाव से जुट जाते हैं। इस दौरान गवर्नेंस के ये कारिंदें इस कार्यक्रम में किसी अवांछित गड़बड़ी की आशंका से हलकान भी रहते हैं..! क्योंकि आजकल की गवर्नेंस भ्रष्टाचार पर तो नहीं..! लेकिन ऐसी किसी गड़बड़ी पर तुरंत ऐक्शन मोड में आ जाती है..। खैर..
आज के लोकतंत्रीय जमाने में ऐसे मंचीय-स्कीमों की जबर्दस्त मांग होती है। एक बार गुड-गवर्नेंस से संबंधित उपलब्धियों के बखान वाले कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी, पशुपालन-विभाग के डाक्टर साहब ने कुछ चिन्तित आवाज में मुझसे कहा –
“सर जी, क्या करें..दो दिन से हम यहाँ की तैयारी में लगे हैं और वहाँ अस्पताल बंद पड़ा है…एक पशुपालक तो, फोन कर-करके हमें परेशान कर दिया है कि उसका पशु हीट में है…अब आप ही बताएँ, हम क्या करें?”
थोड़ा विचारते हुए मैंने गुड-गवर्नेंस के प्रदर्शन की स्कीम को उनकी समस्या से अधिक ज्वलंत और संवेदनशील समस्या माना और उन्हें सलाह दिया –
“यार, उस पशुपालक से कह दो…हम गुड-गवर्नेंस के प्रदर्शन वाली स्कीम में फंसे हैं…आज अपना पशु वापस लेकर चले जाओ..! उसकी अगली हीटिंग पर आना..”
फिर भी, डाक्टर साहब मिल्क-प्रोडक्शन की धीमी प्रगति पर चिन्तित थे, लेकिन मैंने फिर उन्हें समझाया –
“वैसे भी ये पशुपालक दूध ही तो बेचेंगे…बछड़े को दूध पीने नहीं देंगे..! या तो वह मरेगा या फिर अन्ना जानवरों के झुंड में शामिल हो अन्ना-प्रथा की समस्या बढ़ाएगा..! जबकि इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी आपकी ही है..! तो, दो कन्ट्राडिक्टरी जिम्मेदारी आप कैसे निभा पाएंगे..? बाकी, यदि नवजात बछड़ा अपनी गौ-माँ का दूध पिये बिना मर गया, या उसे अन्ना-पशुओं के झुंड में छोड़ा गया, तो मिल्क-प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के इस कार्य से आप अलग से पाप के भागी बनेंगे..! अतः मिल्क-प्रोडक्शन की चिन्ता छोड़ किसी पुण्यात्मा की तरह गुड-गवर्नेंस के स्कीम के आयोजन की चिंता करें।”
मेरी बात उनकी समझ में आयी या न आई हो, लेकिन हमें ठंडा पानी पिलाते हुए वे कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।
लेकिन, कभी-कभी कुछ अवांछनीय घटनाएं भी घट जाती हैं, एक बार ऐसे ही एक कार्यक्रम की तैयारी में एक सरकारी आयोजक महोदय तल्लीनता के साथ जुटे थे। मंच पर विभाग के मुखिया को आना था। मंच की सीढ़ी पर कालीन टाइप का कुछ बिछाने को लेकर उनकी कटिबद्धता देख, जब मैंने इसे गैरजरूरी बताया तो उन्होंने मुझसे कहा –
“आप नहीं समझते, हम डिसिप्लिन में रहने वाले लोग हैं, इसी से हमारे काम का प्रदर्शन आंका जाता है..!”
और उसी बिछायी कालीन से उनकी नजरें धोखा खा गई। सीढ़ी पर बिछे उस कालीन में उलझ कर वे ऐसे गिरे, कि अपना कूल्हा ही तुड़वा बैठे और प्लास्टर चढ़ाए महीनों अस्पताल में पड़े रहे। इधर उनका महकमा उनके गुड-गवर्नेंस से भी वंचित रहा। खैर..कहने का आशय यह कि गुड-गवर्नेंस का प्रदर्शन ऐसा होना चाहिए कि गुड-गवर्नेंस में कोई बाधा न आए।
ऐसे मंचों पर सरकारी और असरकारी विंग के वीआईपी टाइप के नुमाइंदो के लिए उचित व्यवस्था की जाती है। एक बार इस मंचीय-स्कीम की व्यवस्था में बाधा देखकर गवर्नेंस का एक आला कारिंदा अपने से छोटे सरकारी कारिंदें को जबर्दस्त ढंग से हड़काए जा रहा था, कि-
“तुमने ढंग के मेजपोश नहीं लगाए, देखो कैसी सिकुड़न है..कुर्सियाँ भी ढंग की नही लगी…तौलिए का यही कलर मिला था.? ढंग के तौलिए की व्यवस्था नहीं कर सके…मेज एक अदद गुलदस्ते के लिए तरस रहा है…नुमाइंदों के नेमप्लेट भी नहीं लगाए..अरे ये देखो..! मंच पर गमले भी नहीं रखवाए…तुमसे हो चुका विकास…तुम्हें किसने अधिकारी बना दिया..!”
और वह बेचारा छोटा कारिंदा मुँह लटकाए अपने बड़े साहब की डाट ऐसे खाए जा रहा था, जैसे उसे किसी घोटाले के आरोप में रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो..! बल्कि घोटालेबाजों को देख ऐसे आला डाटबाजों की बाँछें वैसे ही खिल जाती हैं जैसे, वोट के सौदागर किसी आतंकी के नाम के आगे-पीछे “जी” लगाए घूमते हैं..! इसीलिए घोटालेबाज भी आतंकियों की तरह सीना फुलाए घूमते हैं..!! खैर..
अब इस मंचीय-स्कीम के मंच पर मंत्री से लेकर संत्री तक उदारमना बन जाते हैं। ये अपने वक्तव्यों से अपने गुडवर्क का स्वयं कोई श्रेय नहीं लेते! अपितु गीता-ज्ञान से प्रभावित स्वयं को निमित्त मात्र बताकर ऊपर वाले को कर्ता घोषित कर देते हैं। वैसे तो, अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं में अच्छे या बुरे का कर्ता ऊपर वाला ही होता है, लेकिन भक्ति-भावित जन ऊपर वाले के बुरे को भी अपने लिए अच्छा ही मानते हैं। ऐसी भक्ति-भावना से उपजी गवर्नेंस “ऊपर वाला सब अच्छा करता है, नीचे वाला ही बुरा कर सकता है” जैसे कथन को आप्तवाक्य के रूप में स्वीकार करती है। इस मान्यता के कारण ऊपर वाला नीचे वाले पर सदैव कृपादृष्टि बनाए रखता है और गुड-गवर्नेंस के “गुुड” में अपनी हिस्सेदारी मानता है।
अकसर इन मंचों से लोकतंत्र के नुमाइंदे और कारिंदे प्रजा के मस्तिष्क की ऐसी प्रोग्रामिंग करते हैं कि रोबोट भी शरमा जाए..! फिर तो इस रोबोटिक-प्रजा से उसके अपने ही घर में आग लगाने का काम कराया जा सकता है..! इसका प्रमाण जब-तब धूँ-धूँ कर जलते अपने देश में देखा जा सकता है। या, इसी प्रजा में गुड-गवर्नेंस की फीलिंग देने वाले साफ्टवेयर के अपलोडिंग से कोई भी अपने लिए धन्य-धन्य भी बोलवा सकता हैं..! इस तरह अपने यहाँ के लोकतंत्र में साफ्टवेयर-इंजिनियर टाइप के नुमाइंदे होते हैं..!!
लेकिन टेक्नोलॉजी के अपने खतरे भी होते हैं, अपनी पार्टी की एक चुनावी हार के बाद एक ऐसा ही साफ्टवेयर इंजिनियर एक दिन अपना दुखड़ा रोते हुए मुझसे बोले –
“कुछ भी कर लो इनके लिए…चाहे जो कर दो, लेकिन इन्हें हमारे अच्छे काम से, जैसे कोई मतलब ही नहीं..! किस बात पर हराएँ या जिताएँ..कोई भरोसा नहीं..!”
हलांकि मैं उनसे कहना चाहता था, “नेता जी..! ये जो आपकी प्रजा है न, रोबोटिक-प्रजा..! या तो वाइरस से आपकी प्रोग्रामिंग करप्ट हो गई होगी या फिर किसी चतुर-सुजान ने मौका देखकर फिर से इनके दिमाग की प्रोग्रामिंग कर दी होगी..! जो चुनाव में आपकी पार्टी के हार का कारण बनी..”
और, मैं उनसे यह भी कहता –
“आप देश की जनता को इंसान या नागरिक नहीं अपितु वोटर समझते हैं…प्रजा तो आपके लिए यह पहले से है..! आपका गुड-गवर्नेंस जनता के इस प्रजापन और वोटरपन के बीच भटकता है..। इसीलिए जनता को इससे कोई मतलब नहीं और जब जिस लोकतांत्रिक नुमाइंदे का साफ्टवेयर भारी पड़ता है, वह जीत जाता है..आपके चुनावी हार-जीत का यही कारण है, विकास तो होता-हवाता रहता है..एक बात और, मंच से दमकते हुए आप जब इन्हें अपनी रियाया समझ अपने गवर्नेंस का बखान करते हैं न, तो आपके गवर्नेंस से जलभुनकर आपके यही वोटर आपसे कन्नी काट जाते हैं…और किसी दूसरे को अपने वोट से ऐश करने का मौका दे देते हैं… आखिर ईर्ष्या भी तो इस देश के मूल स्वभाव में है..! समझे..?”
लेकिन मेरी बात लंबी थी और वो नुमाइंदे महोदय मुझे सुने बिना चले गए। मैं मन में यही गुनता-धुनता रहा कि इस देश में प्रजा और वोटर के सिवा इंसान भी रहते हैं या नहीं? और अंत में, मैं उनसे यही पूँछता-
“लोकतंत्र की गुड-गवर्नेंस वाली आपकी यह स्कीम किसके लिए है..? इंसान या नागरिक या प्रजा या फिर वोटर के लिए..? पहले यह तो कन्फर्म करिए..!”