बस चुल्लू भर पानी ही रहा-
उलझी लटों की तरह, ए जिंदगी उलझ गई।
दम भरने को ठहरे तोे, ए जिंदगी फिसल गई।
अपने हाथों से ही अरमानों का गला, घोटना पडा।
मंजिल पर पहुंच कर, मुझकोे लौटना पडा
मुसलसल ठोकरे खाता रहा, फकत मेंरा दिल
मीठी मीठी आग लगी और, जिंदगी जल गई।।
सारे सावन बीत गये, इक बंूद को हम तरस गये।
प्यास मेंरी बुझा न सके, बादल जो सब बरस गये।
तैरने का इल्म न था, बस डूबते ही चले गये –
जब आरजू कोई न रही, तो लाश मेरी तैर गई।।
कुदरत का है खेल निराला, गुल भी सारे रोते हैं।
नीचे की पंखुडियां गिर जाती, फूल तब पूरे होते हैं।।
दुनियां ये बेकार ही है, सिंकदर भी कंगाल गया।
कहा सुई से खीसा बना दे, जालिम कफन सिल गई
कह दे कोई चरागों से, बेकार है उनकी शिखा।।
उजालों का अब काम नहीं, रहनुमा है बनीं निशा।।
सागर सब बेकार हुये, बस चुल्लू भर पानी ही रहा-
गले में क्या उतर गया, जिंदगी निकल गई।।
बीत गया बचपन सारा, जवानी भी सारी चली गई
पीछे मुड़कर देखा तो, कहानी भी सारी चली गई।।
कोई (राज) न तेरा समझ पाये, आखिर तू क्या चाह रही-
जिसके सहारे अब तक था, डाली भी ओ चली गई।