ग़ज़ल
ख़ुदी इस बात की उनको,कि अमीरों में रहते हैं।
तो हम भी कहाँ किसी की, जागीरों मे रहते हैं।
जिस राह पर चलते हो तुम,अपनी शान के ज़द पे,
हम शौक से शामिल,उन्हीं राहगीरों में रहते हैं।
मायूसियों में हैं भले,संगति हमारी पाक है,
न चमकती मंजिलों,न गर्द जमीरों में रहते हैं।
तू बाँट ले रंगत-ए-शमाँ,गर बाँटना चाहे सभी,
हँसी मंजर नहीं,कुदरत की असीरों में रहते हैं ।
अफसोस है मुझको तो, तेरे इस बात का ‘अयुज’
तू जो हँसकर कहता है, हम फकीरों में रहते हैं।