“ककड़ी बिकतीं फड़-ठेलों पर”
लम्बी-लम्बी हरी मुलायम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
कुछ होती हल्के रंगों की,
कुछ होती हैं बहुरंगी सी,
कुछ होती हैं सीधी सच्ची,
कुछ तिरछी हैं बेढंगी सी,
ककड़ी खाने से हो जाता,
शीतल-शीतल मन का उपवन।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
नदी किनारे पालेजों में,
ककड़ी लदी हुईं बेलों पर,
ककड़ी बिकतीं हैं मेलों में,
हाट-गाँव में, फड़-ठेलों पर,
यह रोगों को दूर भगाती,
यह मौसम का फल है अनुपम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
आता जब अप्रैल महीना,
गर्म-गर्म जब लू चलती हैं,
तापमान दिन का बढ़ जाता,
गर्मी से धरती जलती है,
ऐसे मौसम में सबका ही,
ककड़ी खाने को करता मन।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)