लघुकथा – सिद्धांत
रमेश को रेल सफर में एक सज्जन दम्पति मिले साथ में उनकी पत्नि भी थीं। सज्जन की उम्र लगभग करीब 70 साल रही होगी। उनकी पत्नी भी कुछ छोटी ही होंगी। सफर में वृद्धा पत्नी ने कुछ खाने का सामान और दबाई निकाली और पति की ओर बढा दी । पति कांपते हाथों से धीरे-धीरे खाने लगे। आगे एक स्टेशन पर अपना खाना खोला और दोनों बहुत आराम से खाते रहे। रमेश ने पीने को कोक का ऑर्डर दिया था, उन्होंने जूस लिया |रमेश अपने कैन के ढक्कन को खोला और धीरे-धीरे पीने लगा। उन सज्जन ने कोई जूस लिया था खाना खाने के बाद जब उन्होंने जूस की बोतल के ढक्कन को खोलना शुरू किया तो ढक्कन खुले ही नहीं। सज्जन कांपते हाथों से उसे खोलने की कोशिश कर रहे थे। रमेश को लगा कि ढक्कन खोलने में उन्हें मुश्किल आ रही है तो शिष्टाचार हेतु कहा कि लाइए…
” मैं खोल देता हूं।” सज्जन ने उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहने लगे कि… “बेटा ढक्कन तो मुझे ही खोलना होगा।“ रमेश लेकिन सवाल भरी निगाहों से उनकी ओर देखा। यह देख, सज्जन ने आगे कहा बेटाजी, “आज तो आप खोल देंगे। लेकिन अगली बार..? कौन खोलेगा….? इसलिए मुझे खुद खोलना आना चाहिए।“ पत्नी भी पति की ओर देख रही थीं। जूस की बोतल का ढक्कन उनसे अभी भी नहीं खुला था। पर पति लगे रहे और बहुत बार कोशिश करके उन्होंने ढक्कन खोल ही दिया। दोनों आराम से जूस पी रहे थे। सज्जन ने रमेश को बताया कि उन्होंने..
“ये नियम बना रखा है कि अपना हर काम वो खुद करेंगे। कभी अपनी रोज़ की ज़रूरत के लिये वे सिर्फ पत्नी की मदद ही लेते हैं, बाकी किसी की नहीं।“ वो दोनों ज़रूरतों को समझते हैं जितना संभव हो, अपना काम खुद करना चाहिए। फिर बोले ,” ये जीवन सिद्धांत हैं , एक बार अगर काम करना छोड़ दूंगा, दूसरों पर निर्भर हुआ तो फिर मन हमेशा यही कहेगा कि हमे हर काम किया ही मिल जाये।“
मौलिक और अप्रकाशित
रेखा मोहन 13/4/१८