ग़ज़ल
पाने को जिन्हे हमने ता उमर आंसू बहाए थे ।
खबर हमारी मौत की सुन बह मुस्कराए थे ।।
फितरत है उनकी बात-बात पे गिरगिट बन जाना ।
आज भी आए ऐसे कि हम पहचान न पाए थे ।।
लोग मिले सब हमसे बाहें फैला अपनो की तरह ।
और वह अश्कों का हार पहनाने को लाए थे ।।
न मिलने की कस्म खा कर बह गए थे सदा को ।
फिर भला विदा करने वह आज क्यों आए थे ।।
हँसाओ कोई, उनकी खामोशी से डरता है “दीक्षित” ।
रोको मत मुद्दतों बाद वह मिलने को आए थे ।
— सुदेश दीक्षित