शेखचिल्ली के सपने
एक सेठ का नौकर मूढ़-सा,
शेखचिल्ली था उसका नाम,
चलते-फिरते, जागते-ऊंघते,
सपने लेना उसका काम.
एक बार बोला मालिक से,
”मां की याद सताती है,
मुझको ऐसा लगता रहता,
मां भी मुझे बुलाती है”.
मालिक ने छुट्टी भी दे दी,
जेब-खर्च भी दे डाला,
एक दही की मटकी देकर,
कहा- ”चलो तुम अब लाला.”
बहुत प्रसन्न थे शेखू भैया,
”अब मैं भी मालिक हूंगा,
मेरा भी इक बंगला होगा,
नहीं किसी को दुःख दूंगा”.
एक पेड़ की घनी छांव में,
मटकी रखकर बैठ गया,
बैठे-बैठे लगा सोचने,
सपने देखे नए-नए.
”दही बेचकर, पैसे लेकर,
बकरी एक खरीदूंगा,
बकरी के फिर बच्चे होंगे,
उनको भी मैं बेचूंगा.
पैसे खूब मिलेंगे मुझको,
कजरी गाय खरीदूंगा,
दूध बेचकर धनी बनूंगा,
मोटी भैंस खरीदूंगा.
एक भैंस से दो भैंसें फिर,
भैंसें चार खरीदूंगा,
मालामाल बनूंगा जब नैं,
अपना ब्याह रचा लूंगा.
नन्हे-नन्हे बच्चे होंगे,
उनको प्यार बहुत दूंगा,
शोर करेंगे जब वो ज्यादा,
थप्पड़ एक जमा दूंगा.
थप्पड़ एक जमाया कसकर,
मटकी को थी चोट लगी,
मटकी टूटी, दही बिखर गई,
किस्मत को थी खोट लगी.
कैसे गाय-भैंस मैं लूंगा,
कैसे ब्याह रचाऊंगा?
कैसे होंगे नन्हे बालक,
किसको चपत लगाऊंगा?
रोता-रोता चला दुःखी हो,
सपने लेना छोड़ दिया,
ध्यान लगाकर शेखचिल्ली ने,
काम से नाता जोड़ लिया.
शेखचिल्ली की तरह बैठे-ठाले व्यर्थ के सपने लेने से कुछ हासिल नहीं होगा. सफलता के लिए सचमुच बहुत प्रयास करना पड़ता है.