दोहे वर्तमान के
अंतर्मन में घुल गया, विष बनकर आघात !
सुबहें गहरी हो गयीं, घायल है हर रात !!
धुंआ हो गयी ज़िन्दगी, हुई ख़त्म सब म्याद !
नहीं शेष उत्साह अब, बढ़ता नित अवसाद !!
सिसक रहा है वक़्त अब, निकल रही है आह !
हर कोई अब दीन है, नहीं कोय अब शाह !!
कैसे हैं अब लोग सब, कैसा है यह दौर !
तंत्र हो गया मोथरा, करो ज़रा तो गौर !!
जीना चाहे जो “शरद”, उसको आती मौत !
मरना चाहोगे अगर, मौत बनेगी सौत !!
हँसना लगता खोखला, थोथी हर मुस्कान !
फीकी सारी शान है, है थोथी अब आन !!
प्यार -वफ़ा झूठे हुये, सस्ता है अब नेह !
आशाएँ रोने लगीं, बिकती है अब देह !!
दुनिया दरकी बीच से, भाव हुये सब भग्न !
मानव अब तो हो गया, निष्ठुरता में मग्न !!
सांसें घुटने लग गयीं, धूमिल है अब काल !
शापित यह युग हो गया, तिरते कई सवाल !!
अंतहीन कोहराम है, सभी ओर है शोर !
ना ही अब उल्लास है, ना ही नाचे मोर !!
— प्रो. शरद नारायण खरे