गजल
हैं चाह मिलूं उससे जो अक्सर नहीं मिलता
दीवार घरों में है मगर घर नहीं मिलता
ये आप भी देखें है कि बस मुझको भरम है
हर शख़्स परेशान है खुलकर नहीं मिलता
इस ज़िन्दगी के चिथड़े सिलाने है मुझे सब
इस शहर में पर कोई रफूगर नहीं मिलता
जज्बाती दिलों ने मेरे जब आग लगा ली
इस से कोई गमगीन तो मंज़र नहीं मिलता
सन्नाटे हैं तनहाई है रुसवाई है दिल में
धोखा जो जमाना दे वो पढ़ कर नहीं मिलता
वो प्यास बुझा देती मेरी आज सभी , पर
अच्छा है कि प्यासे को समंदर नहीं मिलता
हैं दोस्त भी ‘अरविन्द’ बहुत सारे मेरे पर
जब दिल को जरूरत हो तो दिलवर नहीं मिलता
— कुमार अरविन्द