कविता

चाह

मेरी

चाह बस

इतनी सी है

एक बार छू लूँँ

बस एक बार

जिंदगी तुझे

बहुत सालों से

दिखी नहीं है

गरीब खाने में

हाँ! एक दफा आई

थी पहली किलकारी

के साथ,फिर दिखी ही

नहीं तुम, गुजारिश है

मौत आने से पहले

एक बार मिल लेना

जिंदगी

बड़ा दुख हुआ जानकर
कि अपने किसी कोने में घृणा को पालते हैं
मगर एक अच्छी बात यह है कि
मेरे बारे में वह बहुत कम जानते हैं
लोगों को दुख है कि मैं क्या हूं ?
उनकी कोशिश चरम सीमा तक पहुंच गई है
हां !!कहने का मतलब मेरे घर तक
बेइंतहा कोशिशें की होंगी
बड़े भाई को मेरे खिलाफ भड़काने की
जब ऐसी बातें पता चलती है
तो प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है
आंखों के सामने
की मेरा अपना है कौन ?
इंसान होने के नाते बातें जरूर करता हूं
मौन भी नहीं रह सकता
लेकिन जब मैंने जिक्र गुलाब के फूल का किया है
तो वह दूसरों के सामने कांटे क्यों बताते हैं ?
इतना सा निवेदन है ,मेरे बारे में बताने से पहले
क्या उन लोगों में इतनी हिम्मत नहीं है
कि मेरे सामने आकर बता सके वो
कमियां जिनको मैं पूरा कर सकूं
षड्यंत्र की पराकाष्ठा है ,देखते हैं
लोग कितनी दूर तक जाते हैं
और मेरे शब्द मुझे कहां तक खींचते हैं?
उनकी कामयाबी इतनी जरूर है
कि उन्होंने मुझे मानसिक परेशान कर दिया है
शायद यह कविता जरुर बाहर लेकर आएगी
मेरी दुआ भी शब्द हैं
और दवा भी शब्द हैं
नैया पार यही लगाएंगे
जय हो

प्रवीण माटी

 

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733

One thought on “चाह

  • कुमार अरविन्द

    सुंदर

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