एक गलत फ़हमी जीवन में मंज़र कैसा दे जाती है
एक गलत फ़हमी जीवन में मंज़र कैसा दे जाती है
पछतावा आँसू तन्हाई जाने क्या क्या दे जाती है
महफिल में भी तन्हा जब महसूस कभी खुद को करता हूँ
आकर याद तुम्हारी मुझको प्यारा लम्हा दे जाती है
उन गलियों में भी तो कोई दीप करो रोशन जिनमें
फैलाती है सुबह कुहासा शाम हताशा दे जाती है
तुम बिन क्या मधुमास पिया जी तुम बिन फगुवा क्या होली क्या
तुम बिन ये घनघोर घटा भी सावन प्यासा दे जाती है
रोज सवेरे बैठ अटारी आस बँधा देता है कागा
लेकिन ढलती शाम हमेशा एक निराशा दे जाती है
बिन बोले ही उसकी आँखों ने जब सारी बाते कह दी
तब समझे की तरुणाई आँखों को भाषा दे जाती है
वो पल भर नज़रों का मिलना शरमा कर फिर झुक झुक जाना
बात गजब है चाह नज़र की दर्द नया सा दे जाती है
सतीश बंसल
१६.०४.२०१८