लघुकथा – इन्तजार
कुम्भ के मेले में बिछड़ एक बुढिया सीढियों पर बैठी अपने परिवार का इन्तजार कर रही थी| तभी एक सज्जन की नज़र उस पर पड़ी और पूछा, “माताजी, अब कोई नहीं आएगा, तुम्हारा परिवार तुम्हें छोड़ गया है गंगा किनारे| यहां दो-चार बूढ़े-बूढ़ियां रोज़ छोड़ दिए जाते हैं” वह बुदबुदाता निकल गया| वह बूढ़ी माई जब-जब किसी से अपने परिवार के बाबद पूछती तो बस यही एकमात्र निराशा सी मिलती| रात होते-होते उसका दम घुटने लगा| पर मन कितनी आशंका पाल बैठा, “उसकी चिंता परिवार में कोई अनहोनी ले खो जाता| “हे गंगा मैया, मेरा परिवार में सब ठीक हो| गाँव से मेरा बेटा और बहू मुझे जिद्द कर सारी ज़मीन जायदाद बिका शहर ले लाये थे, वो धोखा नहीं दे सकते| लोग ये क्या सच कहते, “अब तुम्हें अपनी जिंदगी यहीं गुजारनी होगी हम सबों के बीच|” सीढियों में छाया सी बनी बैठी होठों में प्रभु नाम जपती तभी उनका पड़ोसी अँधेरे में टकराता सा रुका| उसने माता को पहचान लिया और बोला, “वो सब ज़ा चुके आपको यहाँ छोड़ गये, आप चिंता न करो मेरे साथ घर को चलना|” जब घरवालों ने उसको देखा तो उससे लिपट फरेब भरे आँसू बहाने लगे और खों जाने का बहाना बढा-चढ़ा सुनाने लगे| पड़ोसी चरण छु आगे बढ़ गया| परिवार पड़ोसी पर दांत पीस रंज निकाल घूर थे कि सब किये पर पानी फेर गया|
— रेखा मोहन
सुंदर
ਰੇਖਾ ਜੀ , ਲਘੂ ਕਥਾ ਬਹੁਤ ਅਛੀ ਲੱਗੀ .ਇਸ ਗੋਲ੍ਬਲਾਇਜ਼ੇਸ੍ਹਨ ਦੇ ਜ਼ਮਾਨੇ ਵਿਚ ਸਭ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਬੁਢਾਪੇ ਲਈ ਵਿਵਸਥਾ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ . ਮਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਸਾਰੇ ਬਚੇ ਸਾਡੇ ਪੈਸਿਆਂ ਲਈ ਆਪਸ ਵਿਚ ਝਗੜਦੇ ਹਨ .ਕਿਓਂ ਨਾ ਅਸੀਂ ਆਪਣਾ ਇੰਤਜ਼ਾਮ ਖੁਦ ਕਰ ਲਈਏ .ਲਘੂ ਕਥਾ ਅਖਾਂ ਖੋਲਣ ਵਾਲੀ ਹੈ . ਇੱਕ ਗੱਲ ਮੈਂ ਨੋਟਿਸ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਆਪ ਨੇ ਆਪਣੀ ਜਨਮ ਤਾਰੀਖ ੭ ਤਰੀਕ ਲਿਖੀ ਹੈ ਲੇਕਿਨ ਸਾਲ ਨਹੀਂ ਲਿਖਿਆ .
रेखा जी , लघु कथा बहुत अछि लगी .इस ग्लोबलाइज़ेशन के ज़माने में सभ को अपने बुढापे के लिए विवस्था कर लेनी चाहिए .मरने के बाद सभी बच्चे हमारे पैसों केव लिए आपस में झगड़ते हैं . क्यों न हम अपना इन्तजाम खुद कर लें .लघु कथा आँखें खोल देने वाली है .एक बात मैंने नोटिस की है, आप ने अपनी जन्म तारिख ७ लिखी है लेकिन साल नहीं लिखा .