लोभ द्वेष का नित बढ़ता तम…
लोभ द्वेष का नित बढ़ता तम, पथ से कदम नही भटका दे।
इसीलिये अपने अंतस का, दीप जलाना सीख रहा हूँ ।।
सब कुछ पाने की चाहत भी, कारण दुख का एक बड़ा है।
भौतिकता की चकाचौंध में, दृष्टि पटल सिकुड़ा- सिकुड़ा है।।
मैं जीवन की चकाचौंध से, आँख बचाना सीख रहा हूँ…
इसीलिये अपने अंतस का, दीप जलाना सीख रहा हूँ…
खुद से मिले बिना ईश्वर से, मिलना कब सम्भव होता है।
लेकिन बहुत बाद में जाकर, हम को यह अनुभव होता है।।
इसीलिये मैं रब से पहले, खुद को पाना सीख रहा हूँ…
इसीलिये अपने अंतस का, दीप जलाना सीख रहा हूँ …
जो हम में ही विद्धमान है, उसको सारे ढूँढ़ रहे हैं।
मंदिर मस्जिद चर्चों में या, जा गुरुद्वारे ढूँढ़ रहे हैं।।
मुझमें उसके निहित अंश को, मीत बनाना सीख रहा हूँ…
इसीलिये अपने अंतस का, दीप जलाना सीख रहा हूँ…
जो इस दुनिया से पाया है, सब इक दिन खोना है हमको।
अंततः तो पंच तत्वों में, ही विलीन होना है हमको।।
मैं जिसका हूँ अंश उसी का, बस हो जाना सीख रहा हूँ…
इसीलिये अपने अंतस का, दीप जलाना सीख रहा हूँ…
सतीश बंसल
१६.०४.३०१८