हाउसवाइफ
हां मैं सिर्फ एक हाउसवाइफ ही तो हूँ
समाज की नजरों में जिसका कोई वजूद नहीं ।
सपनों को आंखों में बसाए ,
ख़्वाबों को दिल में छिपाए
कब बड़ी हो जाती है लड़की
उम्र का पता ही नहीं लगता।
बांध दी जाती है एक खूंटे से ,
बिना उसकी मर्जी जाने
विदा हो जाती है उम्र से पहले
अपनी खुशियों का गला घोंटे ।
उम्मीदें होती हैं हजारों सबको
चाहे बड़े हों या छोटे ,
ओढ़कर शर्म का गहना
रहती है सपनों से आंख मींचे
आ जाते हैं गोद में जब फूल
भूल जाती है ख़्वाबों की abcd
बन जाता है मकसद सींचना ,
दुनिया को अपनी ख़्वाबों में समेटे ।
कहने को तो बेगार हूँ ,
सिर्फ आराम की तलबगार हूँ ।
उठता है दर्द पोर पोर में,
सहने है फिर भी तानों के कशीदे ।
चर्चे हैं आजकल बहुत मेरे ,
क्या गली घर और बगीचे ।
आराम ही आराम है जिंदगी में
देखो वो हैं अब जिम्मेदारियों से छूटे ।
काश सीखा होता दुनिया से ,
गप्प मारकर जिंदगी जीना ।
न होते अरमान फना हमारे
हम भी जी पाते झूठा मुखौटा लपेटे ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़